रविवार, 9 अप्रैल 2017

मधु सिंह : रज सुरभित आलोक उड़ाता

 


तुहिन सेज पर ठिठुर-ठिठुर कर  
निशा  काल  के  प्रथम प्रहर में 
बैठा   एक     पथिक    अंजाना 
था तीब्र प्रकम्पित हिमजल में 

तभी प्रात की स्वर्णिम किरणें 
लगी मचलने व्योंम प्राची पर
हाथ पसारे  निस्सीम तेज ले 
लगी उतरने  हिम छाती  पर 

रज  सुरभित  आलोक  उड़ाता
हिम-  शैलों   पर  भर अनुराग 
 मृदुल अनंग नित क्रीड़ा करता
 भर- भर  बाँहों  में प्रेम- पराग


निद्रा   भंग    हुई   शैवालों की 
हिम-चादर गल लगी पिघलने
धवल   धरा   के    आँगन  में 
हरियाली  उग  लगी  बिहसनें


स्वांस सुगन्धित लगी मचलने
पवन  हुआ   सुरभित  गतिमान
प्रात  काल  की  लाली  बिखरी
शीर्ष  शिखर  पंहुचा  दिनमान 


रह - रह  नेत्र  निमीलन करती 
बार-  बार  सोने  को  मचलती  
कल-कल निनाद के महारोर में
स्नेह की बाती जल-जल बुझती

                      मधु "मुस्कान "



बुधवार, 5 अप्रैल 2017

मधु सिंह : ये इश्क भी खुदा नें क्या चीज़ बनाई है



अब  दर्द ज़िन्दगी का  सहा भी नहीं जाता
हया  के  पर्दे से कुछ कहा  भी नहीं जाता

आलम -ए - तन्हाई  औ ये  बेबसी भी कैसी
के  उनके बगैर तन्हां रहा भी नहीं जाता

ख़्वाबों के  समंदर  में हमने डूब के देखा है
ख्वाबों  में न आयें तो रहा भी नहीं जाता

ये    इश्क भी खुदा नें  क्या चीज़ बनाई है
गर ये इश्क न होता तो रहा भी नहीं जाता


                               मधु "मुस्कान "





रविवार, 20 सितंबर 2015

मधु सिंह : भंग निशा की नीरवता कर






गोधूली  के  धूलि गगन से       
बोलो !  तुम्हें  बुलाऊँ  कैसे
भंग निशा की नीरवता कर
बोलो !   दीप जलाऊँ   कैसे

नद-  नदिओं के झुरमुट से
आहट  एक  कोई  आती है
हौले-   हौले  पग चापों  को
बीणा  का तार  बनाऊँ  कैसे

अश्रु  बह  रहे निर्झरणी बन
नील  गगन  स्तब्ध मौन है
व्योम चांदनी मलिन पड़ी है
चंदा   को   समझाऊँ   कैसे

हिमशिखरों में लगी आग है
तन उपवन जल रहा आज है
धू -धू  जलती  आशाओं की  
अपनी  व्यथा  सुनाऊँ कैसे 

सूख  रही  लतिका उपवन में 
पुष्प अधखिले रुदन कर रहे
भ्रमर व्यथा की भेंट चढ़ गये 
कलिओं  को  बतलाऊँ   कैसे

  कसक बची  उर बीच एक है 
पग घुघरू बाँध मैं  आऊँ कैसे
आ आ कर तेरे पास प्रिये मैं 
भर  बाँहों  में  इठलाऊँ  कैसे

    सुधार हेतु सुझाव सादर आमंत्रित


               मधु "मुस्कान "

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

मधु सिंह : शलभ आ न पाया निशा क्रूर थी



सुधी पाठकों के स्नेह  और  आशीष की  असीम  आकांक्षा 
के  साथ  लगभग  तीन  माह   के  यूरोपीय   भ्रमण  पर 
 
 












 इसे मत कहों तुम समंदर का पानी 
है  इसमें  छुपी आँसुओं की कहानी

दीप अंगणित निशा वक्ष पर थे जलाए
विरह के झकोरों ने जिसको बुझाए

शलभ आ न पाया निशा  क्रूर थी
मिलन की घड़ी भी बहुत दूर थी

दामिनी थी कड़कती निशा मध्य ऐसे 
बक्ष में   हो   रहा   हो विस्फोट जैसे

 रुदन  ही  समंदर रुदन  ही कहानी 
न पढ़े इसको दुनियाँ दो बूँद पानी



                          मधु "मुस्कान "

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

मधु सिंह : इक नया जख्म खिला गया कोई










याद फिर किसी की दिला गया कोई
इक  नया  जख्म  खिला गया कोई

जरा मौसम की  मेहरबानियाँ देखो
अब के गर्मी में घर जला  गया कोई 

खीँच    कर    दिल पे  लकीरें  गहरी 
नींद  उम्र  भर  की  चुरा गया कोई 

वादा   था चाँद का बाम पर आने का 
जुगनुओं को बैसाखी थमा गया कोई 

इक प्यास ले तमाम उम्र सहरा में रहे
और आग  सहरा में लगा  गया कोई 

इक  खता क्या  जो लम्हों  ने  किया 
के  ता उम्र की  सज़ा  दे  गया  कोई

                            मधु "मुस्कान "

                         




रविवार, 22 मार्च 2015

मधु सिंह : तू जिधर जायगा मैं उधर जाऊँगी



इश्क में टूट कर गर बिखर जाउँगी
ये बताओ  जरा  मैं  किधर जाउँगी

तेरी चाहतों  को खुदा  मैंने माना
तुझे  पास  पाकर   मैं निखर जाउँगी

आईना तेरी आँखों का सामने देख कर
 देखते -   देखते  मैं  सवंर जाउँगी
  
 कहाँ  से कहाँ ला दिया आशिकी नें  
तू जिधर जायगा मैं उधर जाऊँगी  

दूरियाँ इस कदर दरम्याँ जो रहीं 
टूट डाली कली सी बिखर जाऊँगी 


                                     मधु "मुस्कान "