बेवज़ह
बेवज़ह वो रास्ते भर मुझसे यूँ लड़ता रहा
जब जुदाई होने लगी भर सिसकियाँ रोता रहा
नफ़रतों की आग में वो उम्र भर जलता रहा
पर दुआएँ माँग कर हर रोज़ वह लाता रहा
रिश्ते की नाज़ुक डोर में वो गाँठ ही देता रहा
पर डोर रेशम की वह हर रोज़ ही कसता रहा
दुश्मनी की ज़िद में वो कुछ न कुछ कहता रहा
पर प्यार का दरिया लिए पास वो फिरता रहा
क्या बताऊँ नाम उसका दिल से दुआ देता रहा
लड़ते लड़ते बारहां बस वो प्यार ही करता रहा
हो गया पागल बहुत अब चाहने वाला मेरा
ऊँगली पकड़ चलने की ज़िद पर रोज़ लड़ता रहा
मधू "मुस्कान "
bahut hi sunda panktiya, हो गया पागल बहुत अब चाहने वाला मेरा
जवाब देंहटाएंऊँगली पकड़ चलने की ज़िद पर रोज़ लड़ता रहा
bahut sundar gazal.....
जवाब देंहटाएंthanks for visiting my blog :-)
anu
बहुत सुन्दर गजल...
जवाब देंहटाएं:-)
Sunder
जवाब देंहटाएंसुन्दर गजल...
जवाब देंहटाएंसंजय कुमार
आदत….मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com