जिगर पर पत्थरों के हज़ारों जख्म क्या कम थे
अज़ल के रास्ते में अकेले भी न हम कम थे
न आदत थी ख़ुदपरस्ती की न सौदा खुदनुमाई का
के मरहम चश्मे बे-मुरव्वत के हजारों कम न थे
सबक सीखा था मैंने तुम्हारी सौदे - पेशवाई से
तुम्हारी बे-वफाई के गिले-शिकवे भी क्या कम थे
ग़म ये के वफ़ा मायूस है मोहब्बत में मिलावट है
ज्यादा भाव थे नकली के असल के भाव तो कम थे
ज़गह खाली है दिल में बहुत सन्नाटा सा है पसरा
दुश्मनों से ज्यादा दोस्तों के दिए जख्म क्या कम थे
अज़ल - मौत ; खुद्नुमाई- घमण्ड
चश्मे बे- मुरव्वत - कटुता से युक्त ऑंखें
पेशवाई -- नेतृत्व
मधु "मुस्कान"
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