रह -रह कोई
तप्त वेग धमनी का बन कर
बुला रहा है रह- रह कोई
न्योछावर में पुष्प प्यार के
चढ़ा रहा है रह - रह कोई
कभी गुलाब की पंखुड़ियाँ बन
कभी एक कलिका बन कर
बढ़ा - बढ़ा अपनें हाथो को
बुला रहा है रह - रह कोई
खोल- खोल उर अन्तः कपाट
धमनी में सन-सन सा कुछ
विजय विपिन से वन्य सरीखे
रिझा रहा है रह - रह कोई
मंद पवन में सुरभि सुमन में
सुमन - वृंत पर एक परी सी
बाँहों में भर - भर कर अपनें
सुला रहा है रह - रह कोई
विधु सा उदित केश छलकाए
ले -ले श्रुति- पट का चुम्बन
प्रणय -गीत से कर आवाहन
बुला रहा है रह - रह कोई
व्यर्थ न होगा श्रुति-पट चुम्बन
व्यर्थ न होगा मृदु आलिंगन
बना पुजारी शैल- शिखर से
सुना रहा है रह - रह कोई
एक नहीं अगणित रूपों में
चुन-चुन कर जूही की कलियां
मिलन सेज पर सजा सजा के
बुला रहा है रह - रह कोई
घूँघट पट में छुपा के मुखड़ा
विधु आलिगन का आमन्त्रण
लिख लिख कर अपने होठों से
सजा रहा है रह - रह कोई
सरहाने पर अंगुलिओं से
केश बंध को खोल खोल कर
परिओं सा परिधान पहन कर
जगा रहा है रह - रह कोई
पिया मिलन की आस सजाये
मधुर मिलन की सेज सजाये
मधु यामिनी की मादकता सी
बुला रहा है रह - रह कोई
मधु "मुस्कान "
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