देवि !
देवि ! क्यों नभ में दिख न सका
पूर्ण व्यारापति का मादक श्रृंगार
उलझन का यह कैसा विकट जाल
री ! तू मौन त्याग बन महोच्चार
गया दिन सकल आज क्यों बीत ?
री ! क्यों कहाँ खो गई तेरी पुकार ?
खिल न सकी क्यों यौवन कलिका
क्यों हो गई तिरोहित अमिय-धार ?
कह ह्रदय खोल, हे मौन तपस्विनी
कर रहा कौन यह दारुण पुकार
जल -जल भष्म हुआ जाता जीवन
तू उमड़ पड़ो बन घन -घटा अपार
री !हैं नही सेतु यह कच्चे धागे का
तू चल अवाध, ले पग गति अपार
श्वेताशन,आरुढ़ तक रहा वह,देखो
बोल, सत्य का यह कैसा अभिसार
पुलकित होगा कौन आज, रे बोल
प्रिया का पाकर वह मधुमय धार
तिमिर व्यथा को कौन हरेगा ?
उर लिए प्यार का श्रावणी भार
मधु "मुस्कान"
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