रूपसि !
चाह तुम्हें जिस भ्रमर की रूपसि !
वह बना अजन्मा भटक रहा है
मधुर मिलन के सपन सजाये
बन प्रसव पीर वह तड़प रहा है
कभी ओढ़ सपनों में तुमको
कभी बिछा के अपने सपन में
नयन सेज पर पुष्प सजाये
भटक रहा है नील गगन में ||2||जपती जाओ लिए सुमिरिनी
मन का मनका बिखर न जाए
यौवन की सुरभित घाटी से
रूठ कहीं मधुमास रूठ न जाए ||3 ||
दिखी न अब तक वसन्तानिल
घन- सावन कहीं सूख न जाए
सजा के रखना सेज गुलाबी
कहीं यामिनी गिर न जाए ||4 ||
कैसी यह कामना ,बिलासिनी
यह कैसा वैषम्य नियति का
खिल न सकी कलिका नयनों में
कैसा यह दुर्भाग्य नियति का ||5 ||
भूषण- वसन कुसुम कलिका के
कहाँ खो गये , किस मरुवन में
क्यों सो गये नयन सेज़ के मोती
भ्रामरी हँस न सकी मधुबन में ||6 ||
अपलक नयनों से क्या देख रही
झांक रही किस माधवी कुंज में
खो गई कहाँ नव प्रभा रश्मियाँ
क्यों तिमिर विहंसता प्रभा पुंज में ||7 ||
जलता रहा रक्त आहुति में
पर तुम न बोली ,यह मौन क्यों
अरी पगली ,बता पगली, बोल कुछ
बन विधाता , रोना भाग्य पर क्यों ||8 ||
कड़कती क्यों नहीं तुम दामिनी बन
उस अजन्मा की लिए चाह तुम
न देखो तुम घटा बन सखी, बरसो
बन प्रतीक्षित भ्रमर की चाह तुम ||9 ||
क्यों न फट जाती छाती तेरी
क्यूँ न पी लेती गरल के घूँट तुम
निर्भया बन ,चीर दो छाती गगन की
उतारो उस अजन्मा को धरा पे तुम ||10 ||
सखि ,उड़ो आज तुम छू लो अम्बर
जी भार नाचो झूम - झूम कर
सखि , तृप्ति तुम्हें मिल जाएगी
उसके बहुपास में चूम -चूम कर ||11||
मधु " मुस्कान"
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