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नव गुलाब की मोहक सुगंध सी
तू समा गई तन मन जीवन में
कविते, तृषावंत मैं भटक रहा हूँ
तड़प-तड़प कर सकल भुवन में ||1||
धन्य धन्य वो कवि हैं जिनकी
कविताओं में झांकी बनकर
तुम झांक रही अपलक नयनों से
नीर पिपासित सरिता बनकर ||2||
सूखी सरिता ,सूखे सागर
रीते पनघट , प्यासे गागर
खेल रही मरुधर आंगन में
बन कर धूल कणों का सागर ||3 ||
जगा तीब्र मरीचि के सपने
पंख हीन खग सा व्याकुल मैं
वार चुका तन मन जीवन धन
बन दीन अकिंचन आकुल मैं||4 ||
नहीं कोई दानी है जग में
कौन अधर रस पीने ने देगा
कौन साथ मिल कर रोयेगा
क्या नखत पूर्णिमा जीने देगा ? ||5||
कर धारण कौपीन वस्त्र मैं
लिए विपंची घूम रहा हूँ
बना ह्रदय पाषाण शिला मैं
कविते, गिरी गह्वर में दूंढ रहा हूँ ||6||
कुटी नहीं बन पाई जग में
युक्ति एक क्या कई बनाया
कुपित देव की शाप शिखा ले
सेज चिता की स्वयं सजाया ||7||
गुंजन काम देव का देखो
बना भ्रमर वह विहंस रहा है
कमल सारीखे होठों से
मादक रस बन बरस रहा है ||8||
अर्ध तृप्त उद्दाम वासना
खेल रही है नेजों पर
रस से भरी जवानी देखो
तड़प रही है सेजों पर ||9||
सूली ऊपर सेज पिया की
कैसे अभय प्रयाण करूँ
जल रही फसल यौवन की
चढ़ कैसे रसपान करूँ ||10||
(विशालाक्षा की अगली कड़ी अति शीघ्र )
मधु "मुस्कान"
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