दामिनी कुछ बोल दे
न बोली चुप रही क्यों तू सत्य अपना बोल दे
कल्पना -खग पर संवर कर वक्ष अपना खोल दे
जब दृष्टि मेरी पड़ गई तब चाँद शोभित हो गया
निष्फल न होगी कामना तू चक्षु अपना खोल दे
ज्ञान की गरिमा लिए वो कौन है पथ पर खड़ा
रससिद्ध कवि तू सत्यवाणी आज अपनी बोल दे
धूलिमय नभ हो गया है ,सूर्य लोहित हो चला है
हे हृदय के अवनि -अम्बर बन क्षितिज तू बोल दे
देखो कड़कती दामिनी लेकर घटाएं छा रहीं हैं
पथिक राह में असमंजस खड़ा है ,तू कुछ बोल दे
खड़ा है पंथ में जो गिरि, हुंकार भरता आ रहा है
तोड़ सारे बंधनों को , तू भाव मन के खोल दे
ओझल हो गया क्यों भावना का विश्व तेरा
स्वप्न की पीड़ा न बन ,हृदय का सत्य तू बोल दे
कब सेतु होगा सृजित अम्बर-धरा का मौन क्यों हो
कहाँ बनेगा कुंज माधवी ? चुप न रह कुछ बोल दे
गिरि हिमालय रोर करता हो व्यथित हुंकार भरता
शैल शिखरों पर कड़कती हे दामिनी कुछ बोल दे
शंख की ध्वनि गूंजती शौर्य का अस्तित्व बन कर
बाहुभुज में आबद्ध कर तू आज पौरुष तोल दे
मधु "मुस्कान "
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