शनिवार, 31 मई 2014

मधु सिंह : नियति व्यंग से


    ब्रिटेन की धरती से -3

       (दिनकर जी के चरणों में समर्पित)

 कूक   रही   है  नियति   व्यंग  से 
 जीवन    के    निर्जन   उपवन में
 हाय,  विवश  जीवन   है  कितना
लिखा अमावास मिलन-लगन में

 पावों में ज़ंजीर पड़ी है, करें क्या 

 हाथों   में    कड़ियाँ    लटकी  हैं 
 तड़प -  तड़प    आहें   उठती  है  
छल -छल आसूं  लिखे  नयन में

 नहीं  शेष   अवलम्ब  द्रुमों  का

लतिका   हुई  निराश्रित कितनी 
है  पीट   रही   छाती    हरियाली
आग लगी तन मन -मधुवन में

 लेकर  यौवन का सुरभि - भार

 उड़  चला अनिल  हो वेगमान
 वैभव का सुख-स्वप्न खो गया 
महाशून्य के तिमिर  गगन में

प्राण - पखेरू  तड़प - तड़प  कर  
दग्ध-विकल निस्सीम व्योम में
कैसे-कैसे भाव उमड़ते,मत पूछो
आहत  मन से  व्याकुल तन  में

व्योंम    व्यकल,   स्तब्ध   धरा
दिसि मौन हो गए क्यों यतिवर 
रे मेरे निष्ठुर महान,क्यों चुप हो 
खो  गये   कहाँ   निर्जन  बन में

मैं   न     रहूंगी     मौन   आज 
सुन   लो  पौरुष  के  महाज्वाल
मैं   सुरभित    पुष्प   सजाऊँगी
जीवन के  इस महा  मिलन  में

रे    आगंतुक   तेरे    स्वागत से
ऋषि -  देव   सभी  हर्षित  होंगें
निस्सीम व्योम की अल्हड़ता ले 
मुस्काऊँगी  मैं  नील - गगन में

ग्रंथी,पंडित,मोमिन और   पादरी 
मैं   न   सुनूगी    बात  किसी की
मैं अपने  ही  हाथो  लिख  लूँगी
महामिलन का  भाग्य लगन में

                              मधु "मुस्कान "









 

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