क्यों न हर शाख पे फूल मोहब्बत का खिलाया जाए
सिलसिला जिंदगी का कुछ इस तरहा चलाया जाए
बात मज़हब की न उठे कहीं , इंसानियत का दौर चले
दिलों में उठ गईं नफ़रत की दीवारों को गिराया जाए
हम गुनाहों के मशीहा हो बैठ गए , क्यूँ कर आज
क्यों न आज अपनीं खताओं का हिसाब लगाया जाए
मुल्क के रहनुमा ही आज रहज़न की सकल हो बैठे
क्यों न मदरसों में पाठ इंसानियत का पढाया जाए
तोड़ोगे जो ये आईना तो खुद बिखर जाओगे
क्यों न इस हकीकत को सारी दुनियाँ को बताया जाए
चलो आज हम नीरज के गीतों के फिर सलाम कर लें
इस दुनियाँ में इंसानियत का नया मज़हब चलाया जाए
मधु "मुस्कान"
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