हे बदली अब तू बतला दे
उड़ उड़ कर चलने वाली
व्योम धरा रस भरने वाली
कहाँ कहाँ तू घूम के आई
कभी नर्मदा के तट से तुम
कभी ताप्ती से लड़ भिड़ आई
रुला रुला कर ब्रह्मपुत्र को
अश्रु धार की झड़ी लगा कर
झेलम को तू दे दे कर धमकी
हिम शिखरों को आर पार कर
तुम नदिओं को रुला के आई
प्यासी नदियाँ सूखे सागर
बिलख बिलख सब क्रंदन करते
कल ही तुमने चेनाब को लूटा
पानी सब गागर भर लाई
प्यासी तू इतनी अब क्यों हैं
प्यास बुझाने तू आई थी
प्यास जगा , रे तू ये क्या कर आई
मृत चईटीका ऊढा सरस्वती
गंगा मईया को पी आई
नहीं रख सकी लाज भी तुमने
शिव की जटा को भो छल आई
भागीरथ को भी भूल गई तुम
ये तू क्या से क्या कर आई
छली गोमती को भी तुमने
मंदाकिनी को आग लगाई
कभी रुलाती कभी हसाती
कोसी तक को रुला के आई
गंडक प्यासी रोती वरुणा
तप्त धरा है तृप्त नहीं है
यमुना को भी सुला के आई
कहाँ कहाँ तू चोरी चुपके
कहा कहीं को, हो कहाँ तू आई
सीतल सिन्धु को तप्त दग्ध कर
व्यास को भी तू जला के आई
नहीं भरोसा तुम पर बदली
सावन बीता भादों बीता
भारत माता को तू छल आई
घोर घटा घनघोर निराशा
कन्याकुमारी से ले कर तू
कश्मीर तक सब नदिओं को ठग आई
पानी बरसना भूल गई तू
बिजली गिराने अब क्यों आई
व्यथित हो गये अब दृग लोचन
छल कर गई अभी ही तू
घूम फीर, फिर तू छलने क्यों आई
मधु "मुस्कान "
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