यक्षिणी
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
धवल शिखर के शीर्ष बिंदु पर
शंकर की डमरू ध्वनिओं में
तरु तरुवर के क्रंदन में
मनु के नव रचना विधान में
श्रृष्टि सृजन के नव प्रयास में
सच सच कहती हूँ मैंने देखा है
अलकापुरी की गलिओं में
विशालाक्षी की पीड़ा को
मैंने छूया है अपने हाथो से
देखा है अपनी आँखों से
हर युग की यह प्रथा रही है
नारी जीवन व्यथा रही है
कालिदास सच सच बतलाना
क्या यक्षिणी की पीड़ा को
तुमने छू-छू कर देखा था
यक्ष की पीड़ा तुमने लिख दी
कौन् लिखेगा व्यथा यक्षिणी
हर नारी में छुपी यक्षिणी
विरह व्यथा की अग्नि चढ़ गई
नया "मेघदूत" लिखने का मन करता
आहत मन से व्यथित ह्रदय ले
सच कहती हूँ मैं लिख दूँगी
मधु "मुस्कान "
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