कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं
कहीं मुडती कहीं जुड़ती
घूम फिर कहीं लिपटटी
तो कहीं लपेटती हुई
बना देती हैं एक अक्षर
और फिर गढ़ देती है
हमारे लिए एक शब्द
और यदि ये न होते
तो हम कितने लाचार
और गूंगे होते, सायद
खूंटियो पर टंगे -टंगे
एक दुसरे का मुह देखते
कहने को आज हम जिंदा है
मगर याद रखिये.इन्ही
आड़ी तिरछी रेखाओं से बने
शब्दों की बैसाखी पकड़
कभी हम इन शब्दों को
तो कभी ये शब्द हमको
धकलते चले जा रहे हैं
और हम चलते चले जा रहे है
कभी ये शब्द हमारा पीछा
तो कभी हम इनका करते
हँसते और गाते
या फिर रोते बिलखते
जिंदगी के सफ़र में
इन्ही रहबरों के संग
उड़ते चले जा रहे हैं
और तो हाँ ,धीरे -धीरे
ये शब्द और इनके अर्थ
खोते और फिसलते जा रहे हैं
यही है जीवन की यात्रा
पाना खोना और बिछुड़ना
कभी हम शब्दों को ढूंढते हैं
और कभी शब्द हमकों
मधु "मुस्कान "
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