फूलों की महकी घाटी में
क्यों लाशें बिछाई जाती हैं
केसर की क्यारी में बोलो
क्यों संगीने उगाई जाती हैं
क्या हुआ आज इस घाटी को
क्यों आग लगी इस माटी को
क्यों चश्मों से आसूं झरते हैं
क्यों चूल्हों में सपने जलते हैं
आजादी की वर्षगांठ पर
क्यों भाल तिरंगें का झुकता है
क्यों आँख बंद कर दिल्ली
कुम्भकरण बन कर सोता है
क्यों डल झील की छाती पर
ऐ के सैतालिस ढोई जाती हैं
तड़ तड़ गोली की आवाजें सुन
क्यों आँखे रोई जाती हैं
गुलमर्ग से पहलगाम तक
क्यों गोलों के जमघट लगते हैं
छम्ब कारगिल औ राजौरी में
क्यों रोज भोर में घर जलतें हैं
विस्थापन की पीड़ा से पूछो
क्यों लोग भगाए जाते हैं
क्यों संगीनों के साये में
ज़ज्बात जलाये जाते हैं
चेनाब की चंचल लहरों का
क्यों रंग खून जैसा दिखता
क्यों हज़रतबल के भीतर
है संविधान अपना जलता
उर लिए आज इस पीड़ा को
मैं अलख जगाने निकली हूँ
सारी दुनियाँ को सच्चाई
मैं आज बताने निकली हूँ
चंद सरफिरे आ बैठे हैं
अब कश्मीर की छाती पर
आग लगाने को आतुर ये
बैठे हैं मर्यादा की थाती पर
इनको अब समझाना होगा
रस्ता सही दिखाना होगा
मानवता के बीजमंत्र को
इनको आज पढ़ाना होगा
जो इनके हितैसी हो बैठे
वो अपना होश हैं खो बैठे
है ये कठमुल्लों की साजिस
जो पाक समर्थित हो बैठे
ऐसे जाहिल कठमुल्लों को
उपदेश सुनाने निकली हूँ
धू -धू कर जलती घाटी को
मैं सन्देश सुनाने निकली हूँ
मैं पीड़ा हूँ संबोधन की
मैं हुंकार हूँ उद्बोधन की
मैं इन्हें जताने निकली हूँ
इनको समझनें निकली हूँ
पता नहीं इन कठमुल्लों को
है जोर बाजुओं में कितना
इन चंद सिरफिरे मुल्लों को
रस्ता दिखलानें निकली हूँ
मैं मरघट की खामोसी को
नव गीत सुनाने निकली हूँ
द्रास कारगिल और छम्ब को
मैं हुंकार सुनाने निकली हूँ
करते जो अपमान देश का
गाने खून का गाते हैं
इन खूनी गद्दारों को मैं
खवरदार करनें निकली हूँ
सुनो सुनो हे कश्मीरी भाई
तुम रोज रोज सपनों में आते
क्यों रूठ गये अपनों से अपनें
मैं अपनों को मनानें आई हूँ
चलो आज हम प्यार से बोलें
नब्ज़ हकीकत की हम तोलें
अपनें दिल की धड़कन को
मैं तुम्हें सुनाने आई हूँ
खून खराबे में क्या रखा है
नहीं खून की होली खेलो
लिया हाथ में चंदा मामा
मैं ईद मनाने आई हूँ ,मैं ईद मनाने आई हूँ .........
विदर्भ यात्रा के पूर्व आखिरी रचना
लगभग तीन माह के प्रवास पर
मधु "मुस्कान "
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