आधुनिकता अब बन गई है देह का व्यापार
चीर अपनी खुद-ब-खुद जब हो गई व्यभिचार
दोष औरों पर लगे, है यह नहीं स्वीकार
परिधान मर्यादा का क्यों उठ गया सरकार
है नग्नता की नाच यह , है नहीं यह प्यार
जब शौक ही, है बन गया जिश्म का व्यापार
क्यों न होगी मर्यादा हमारी वासना का द्वार
क्यों न होगी मर्यादा हमारी वासना का द्वार
अब जिश्म ही करने लगे हैं खुल के पत्राचार
अस्मिता जल जायगी बन दोगली किरदार
सभ्यता के बक्ष पर है टंगी जिश्म की तलवार
क्यों नहीं होगी हमारी सभ्यता जल शर्मसार
हैं गलतियाँ अपनी भी काफी हम करें स्वीकार
मधु "मुस्कान "
अस्मिता जल जायगी बन दोगली किरदार
सभ्यता के बक्ष पर है टंगी जिश्म की तलवार
क्यों नहीं होगी हमारी सभ्यता जल शर्मसार
हैं गलतियाँ अपनी भी काफी हम करें स्वीकार
नई पीढ़ी , अपनी पीढ़ी , हैं दोनों सहसवार
मधु "मुस्कान "
सटीक प्रस्तुति है आदरेया |
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें-
सार्थक रचना !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना मधु जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
अर्थ पूर्ण उदगार हमारे वक्त के .हाँ एक कौन ये भी है .
जवाब देंहटाएंबहुत ही अर्थपूर्ण सटीक रचना,आभार.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना..
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