विशालाक्षा
वनिताओं तुम सुनो कहानी
आँखों में भर-भर अश्रु धार
कथा -व्यथा आरम्भ हो रही
है धधक रही ज्वाला अपर
चलपड़ा यक्ष अब चित्रकूट को
अपना निर्वासित जीवन जीने
बाध्य यक्षिणी आज हो गई
विरह - व्यथा का विष पीने
हो विमुख यक्ष अब अलग हो गया
पहुँच गया वह चित्रकूट में
स्मृतिओं चिता जला कर
है तड़प रहा वह चित्रकूट में
चित्रकूट की भृकुटी पर
चलो नृत्य ताण्डव दिखलाऊं
यक्ष यहीं पागल हो बैठा
महारूदन का सत्य बताऊँ
अट्टहास थी प्रकृति कर रही
हटा -हटा घूँघट पट अपने
आग़ लगी थी अलकापुरी में
थे बचे मात्र जीवन में सपनें
स्तब्ध विशालाक्ष चिता बन गई
यौवन की जलती ज्वाला में
महाकाम की जव्वाला देखो
धधक रही हिम कण-कण में
हिम शिखरों पर ज्वाला भड़की
है लगी आग तन मन उपवन में
विशालाक्ष जल रही आज
व्यारापति के आचल में
कल -कलरव निः शब्द हो गये
पषाण शिला बन गयी यक्षिणी
रुक गयी आज गति पृथ्वी की
विष वमन कर रही वायु दक्षिणी
हिम परिओं के पंख जल गये
महा -काम की ज्वाला में
पति रहते वैधव्य मिल गया
जल रही यक्षिणी ज्वाला में
महा अनर्थ का तांडव देखो
मलयानिल के झोंकों में
चंचल चपल यामिनी देखो
पिघल रही है आँखों में
मधु "मुस्कान""
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