विशालाक्षा
कौन देख अब विह्वल होगा
मृदुल कपोलों की लाली
कौन पियेगा विशालाक्षा के
अधरों की मधुमय प्याली
किससे वह संदेसा भेजवाए
यही सोच थी उसे सताती
कौन बनेगा उसका दूत
यही सोच थी उसे रुलाती
कभी देखती धरा गगन को
कभी देखती जल चर नभ चर
दूत कोई मिल सका न उसको
है दहक रही बन पावक घर
दूत यक्ष का मेघ बना था
पर विशालाक्षा का भाग्य तो देखो
किससे कहे व्यथा वह अपनी
वनिता का दुर्भाग्य तो देखो
अकस्मात् बिजली क्या कौंधी
मानसरोवर झील दिख गई
थी रुदन कर रही धवल हंसनी
एक विरहणी उसे मिल गई
हंस वियोग में तड़प रही थी
लिए लाख अत्याचारों को
जिसने देखी हो पति हत्या
मत छेड़ो दिल के अंगारों को
नम्र निवेदन विशालाक्षा का
कर उसने स्वीकार लिया
थी पति पीड़ा हंसिनी समझती
दूत भार स्वीकार कर लिया
कहती यक्ष से तुम कहना
कौन करेगा उससे ठनगन
किसकी बाँहों में वह मचलेगी
कौन करेगा उसका चुम्बन
है धधक रही ज्वाला उर में
ले आँखों में मद की लाली
गालों पर रोती अरूणाई
मर रही आज वह भोलो भाली
तन–कान्ति देखने को अपलक
अब आँखे यक्ष की कहाँ गईं
पट मध्य तड़पता तन मन यौवन
प्रियतम की बातें कहाँ गईं
मधु "मुस्कान "
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