रविवार, 10 नवंबर 2013

विशालाक्षा (4)

विशालाक्षा

राजमहल की दीवारों से
नभ -चुम्बी प्राचीरों से
लिपट-लिपट कर वह रोती है
है रोज खेलती अंगारों से


कभी देखती चित्रकूट को
कभी स्वयं को तकती है
जला काम की ज्वाला उर में
राह यक्ष की तकती है

है मृत्यु वरण कर लेना अच्छा
पर मृत्यु उसे स्वीकार नहीं हैं
प्राण- वायु तो  यक्ष है उसका
यक्ष वियोग स्वीकार नहीं

लिए वक्ष आशा की किरणें
नित संघर्ष मृत्यु से करती
जीवन की अंधीं गलिओं में
पल -पल वह खुद से लड़ती

नीद जल गयी रातों की
तन-मन बसन विहीन हो गये
घूँघट–पट का कुछ भान नहीं
पागलपन परिधान हो गये

बालक–रवि को ले गोदी में
कैसे समय नें  करवट बदली
जीवन कितना अभिशप्त हो गया
पग - पग पर छाई है बदली

नहीं खिल सके पुष्प कमल के
दिनकर के अथक प्रयासों पर
अभिशप्त हो गया जीवन उसका
जल रही आज हुतासन पर

परिओं की पग ध्वनिओं  से
रह -रह कर चिंगारी उठती है
व्योम धरा की छाती  पर
उर लिए यामिनी चलती है

आलिंगन से परित्यक्त स्नेह  को
स्वर्णिम–कर से मुक्त देह  को
पग -पग पर वह तुहिन कणों में
ढूंढ रही है यक्ष स्नेह को

नहीं कहीं अब अलि के नर्तन
नहीं कहीं मारुत वन उपवन
कुसुम  पंखुरी के आंगन में
चिता बन गया जीवन मधुवन

                      मधु "मुस्कान "
क्रमशः 

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