ज़लील -सी गाली
(दुष्यन्त के नाम )
लाखों कटीली झाड़ियाँ , उग गई हैं जिश्म पर
तू एक ज़लील - सी गाली से कम हसींन नहीं
इश्तिहारों की तरह तुम लटकी हो कील पर
तुझे यकीन नहीं कि तेरे पावों तले ज़मीन नहीं
सारे ज़मीर लुट गये , जिश्म के बाज़ार में
आस्तीन ही तेरी साँप है, अब वो आस्तीन नहीं
काग़ज़ पे ज़िन्दगी की जो तस्बीर उभरती है
लगता है कि तू कमीनो से कम कमीन नहीं
चुभ गए काँटें घृणा के , पाकीजगी के वक्ष में
तू , तेरी दुनियाँ, ईम़ा तेरा,दोज़ख से बेहतरीन नहीं
मधुर "मुस्कान "