सोमवार, 1 दिसंबर 2014

मधु सिंह : इश्क मेरा रूहानी है




 आप के दरबार में आप की दुआ के खातिर 
                 



इश्क   मेरा   रूहानी है 
राहे- ख़ुदा    कहानी है 

बन बैठा मैं रब का बंदा
रब ही मेरी कहानी है 

सांसो की धड़कन में मेरे 
रब की लिखी कहानी है 

इश्क राम रहमान इश्क है 
सज्द:गाहों  की कहानी है      

सज्जाद हूँ मैं दरगाहों का 
दिल दरगाहों की कहानी है 

रब ही जिश्म है रब ही रूह है 
रूह-ए-परवर की कहानी है 

 सच है यह दुनिया वालों 
 आना जाना ही कहानी है 

                 मधु "मुस्कान "







बुधवार, 12 नवंबर 2014

मधु सिंह : नाम इक फ़क़ीर का बदनाम रहे




     थोड़ा वक्त मिला और मैं हाज़िर
  

फ़लक से चादनी उतरे औ  सरे बाम रहे 
सआदत उनको मिले खराबी मेरे नाम रहे         

हम आश्ना रहें  उनकी  दिल फरेबी से     
तहजीब जिंदा रहे  औ दुआ -सलाम रहे

हजार  पर  लगें  उनकी बलंदिओं को
महफूज रिवायत रहे,न जेर-ए-दाम रहे

 हूज़ूम यारों का  उनकी  गली  से गुज़रे 
औ  नाम  इक  फ़क़ीर का बदनाम रहे 

उनकी  महफ़िल  उन्हें   मुबारक हो
लाख  अँधेरा मेरे  घर सरे -शाम  रहे

                                      मधु "मुस्कान"

सआदत--- अच्छाई
आश्ना---जानकार
रिवायत---परम्पराएँ 
जेर-ए-दाम--- फन्दे में

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

मधु सिंह : हे मौन तपस्वी ! हे यतिवर !






 थोड़ा समय मिला और मैं आप की अदालत में
      दीपावली की शुभकामनाओं के साथ 
                        पुणे से


हे मौन  तपस्वी   !  हे यतिवर  ! हे दिग्दिगंत  !  हे  कन्त  मेरे 
तड़प  तड़प  हम  कहो  करें  क्या ? हे   अंतर्मन   के  संत  मेरे
 
 जीवन  की  मधुरिम बेला में 
 विरह सेज कंटक बन चुभते 
 यौवन की सुरभित घाटी में
 प्रणय दीप जल जल बुझते 
 बोलो  बोलो  कुछ  तो बोलो 


हे   मौन  तपस्वी  ! हे   यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प तड़प हम कहो करें क्या  ?हे  अंतर्मन   के   संत    मेरे
 

 अब  रहा  नहीं  जाता  मुझसे
 अब  सहा  नहीं  जाता  मुझसे
 छुप  गए  कहाँ  निष्ठुर कठोर 
 उठता न भार सांसों का मुझसे  
 बोलो   बोलो   कुछ  तो  बोलो




  हे  मौन  तपस्वी  ! हे  यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
  तड़प तड़प हम कहो करें क्या ? हे  अंतर्मन   के   संत    मेरे
 
 
 देख   प्रात   नभ   की   लाली
 लिए  हाथ   पूजा  की   थाली
 गिरी गह्वर  मैं  भटक रही हूँ
 यौवन उपवन से  रूठा  माली
 बोलो   बोलो   कुछ  तो बोलो


हे   मौन  तपस्वी  ! हे  यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम कहो करें क्या ?हे  अंतर्मन   के   संत    मेरे
 
और कहें क्या  धरा  न धंसती
प्रणय  कलह का  अंत  नहीं हैं
तिमिर  बीच  जीवन उलझा है 
क्या इस जीवन का अंत यही है
बोलो   बोलो  कुछ  तो   बोलो


हे   मौन  तपस्वी  ! हे  यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम  कहो करें क्या ?हे  अंतर्मन  के   संत   मेरे
 
न होता राख न,जलता जीवन
पल -पल युग पर भारी लगते
रोम   रोम  से  धुआँ  उठ  रहा
विरह अनंत पीड़ा बन जलते
बोलो   बोलो  कुछ  तो बोलो



हे   मौन  तपस्वी  ! हे   यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम  कहो करें क्या  ?हे  अंतर्मन  के   संत   मेरे
 
 
बेला  नहीं   मिलन की  आई 
क्यों  चुप हो ? हे  कन्त  मेरे
उमड़   घुमड़   रोती  तरूणाई
हे  चिर यौवन  के   संत  मेरे 
बोलो   बोलो  कुछ तो बोलो


हे  मौन  तपस्वी  ! हे  यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम  कहो करें क्या ?हे  अंतर्मन  के   संत   मेरे 

अविदित नहीं मेरी कुछ तुझसे
अन्दर ही  अन्दर  ही  घुलते हैं 
अरे बिवस  है  कितना  जीवन 
क्यों  न   पाँव   बेड़ी  खुलते हैं
बोलो   बोलो  कुछ  तो   बोलो

                       
हे   मौन  तपस्वी  ! हे   यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम  कहो करें क्या ?हे  अंतर्मन  के   संत   मेरे 

 हाय ! छिन गया जीवन  मेरा 
 प्रणय  पीर   का  छोर  नहीं है  
 तड़प  तड़प जीना भी क्या  है 
 जीवन  में  अब  भोर  नहीं है
 बोलो   बोलो  कुछ  तो  बोलो


हे   मौन  तपस्वी  ! हे   यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम  कहो करें क्या ?हे  अंतर्मन  के   संत   मेरे 

टूट  गईं   आशा  की   किरणें
तिमिर बन  गया जीवन  मेरा 
देखूं   कहाँ  भोर   की  किरणें 
लिखा  भाग्य  में  नहीं  सवेरा  
बोलो   बोलो  कुछ  तो  बोलो 


हे   मौन  तपस्वी  ! हे   यतिवर ! हे दिग्दिगंत !  हे  कन्त मेरे
तड़प  तड़प  हम  कहो करें क्या  ? हे  अंतर्मन   के  संत  मेरे 


                                                  मधु "मुस्कान "

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

मधु सिंह : क्यों संगीने उगाई जाती हैं ?



   

फूलों   की  महकी  घाटी में 
क्यों  लाशें  बिछाई जाती  हैं
केसर की  क्यारी  में बोलो
क्यों संगीने उगाई जाती हैं 

क्या हुआ आज इस घाटी को
क्यों आग लगी इस  माटी को
क्यों चश्मों से आसूं  झरते हैं
क्यों चूल्हों में सपने जलते हैं

आजादी    की    वर्षगांठ   पर
क्यों भाल तिरंगें का झुकता है
क्यों आँख  बंद  कर दिल्ली
कुम्भकरण बन  कर सोता है 

क्यों डल  झील की छाती पर
ऐ के सैतालिस ढोई जाती हैं
तड़ तड़ गोली की आवाजें सुन 
क्यों   आँखे   रोई   जाती  हैं

गुलमर्ग    से   पहलगाम तक
क्यों गोलों के जमघट लगते हैं 
छम्ब  कारगिल औ राजौरी में
क्यों रोज भोर में घर जलतें हैं

विस्थापन  की पीड़ा से पूछो
क्यों  लोग  भगाए   जाते हैं 
क्यों   संगीनों    के  साये  में
ज़ज्बात   जलाये    जाते हैं 

चेनाब  की चंचल लहरों का
क्यों  रंग खून जैसा दिखता 
क्यों  हज़रतबल  के भीतर 
है संविधान अपना  जलता 

उर लिए आज इस पीड़ा को 
मैं अलख जगाने  निकली हूँ 
सारी  दुनियाँ  को  सच्चाई 
मैं  आज  बताने निकली हूँ 

चंद  सरफिरे  आ   बैठे  हैं 
अब कश्मीर की छाती पर 
आग  लगाने  को  आतुर ये
बैठे हैं मर्यादा की थाती पर 

इनको अब समझाना होगा 
रस्ता  सही  दिखाना होगा 
मानवता  के  बीजमंत्र  को 
इनको  आज पढ़ाना होगा 

जो  इनके  हितैसी  हो  बैठे 
वो  अपना होश  हैं  खो बैठे 
है ये कठमुल्लों की साजिस
जो  पाक  समर्थित  हो बैठे 

 ऐसे जाहिल कठमुल्लों को 
उपदेश  सुनाने  निकली हूँ
धू -धू  कर जलती घाटी को
मैं सन्देश सुनाने निकली हूँ

मैं   पीड़ा   हूँ  संबोधन की 
मैं हुंकार  हूँ  उद्बोधन की 
मैं  इन्हें जताने निकली हूँ 
इनको समझनें  निकली हूँ 

पता नहीं  इन कठमुल्लों को 
है  जोर बाजुओं में  कितना 
इन चंद सिरफिरे मुल्लों को 
रस्ता  दिखलानें निकली हूँ 

मैं मरघट की  खामोसी को
नव गीत सुनाने  निकली हूँ 
द्रास कारगिल और छम्ब को 
मैं हुंकार सुनाने निकली  हूँ

करते जो  अपमान  देश का 
गाने    खून   का   गाते  हैं 
इन   खूनी  गद्दारों  को  मैं
खवरदार  करनें  निकली हूँ

सुनो सुनो  हे कश्मीरी  भाई 
तुम रोज रोज सपनों  में आते
क्यों रूठ गये अपनों से अपनें 
मैं  अपनों को मनानें आई हूँ

चलो आज हम प्यार से बोलें
नब्ज़ हकीकत की हम तोलें
अपनें  दिल की  धड़कन को 
मैं   तुम्हें   सुनाने   आई  हूँ 

खून खराबे में  क्या रखा है 
नहीं  खून की  होली खेलो 
लिया  हाथ  में चंदा मामा  
मैं ईद मनाने आई हूँ ,मैं ईद मनाने आई हूँ .........

   विदर्भ यात्रा के पूर्व आखिरी रचना 

   लगभग  तीन  माह  के प्रवास पर
                        मधु  "मुस्कान "


  
    


    

    
        
     
      
     
     
      

सोमवार, 22 सितंबर 2014

मधु सिंह : चेनाब की लहरों का हम नीर बदल देंगें





तस्वीर   बदल   देंगें   तक़दीर   बदल   देंगें 
चेनाब  की लहरों  का  हम  नीर  बदल  देंगें

दुश्मन  के   इरादों  की  तस्बीर   बदल देंगें
यूँ  तो   हम  कश्मीर  की  जागीर  बदल देंगें

संगीनें जो उग रही है केसर की क्यारिओं से 
लिख   प्यार के नग्मों  को  तहरीर बदल देंगें 

दोस्त  बन  के  निकले है दुश्मनों को बदलनें 
हम  दुश्मनों  के  दिल की   ताबीर बदल देंगें 

इतिहास के  पन्नो से  मिटा खू की स्याही को
हम  चेनाब  की  घाटी  की  तकदीर बदल देंगें

फ़ौलादी    इरादे   हैं  ज़ज्बात  भी  फ़ौलादी हैं
दुश्मन  के  निशानों  के  हम  तीर  बदल देंगें

कश्मीर की वादी  में निकले  हैं सज  धज  कर
उनके  नापाक  इरादों  के हम पीर * बदल देंगें  

*धर्मगुरु
                                      मधु "मुस्कान "






रविवार, 21 सितंबर 2014

मधु सिंह : जंग जिन्दगी से जारी है





 जंग   जिन्दगी   से  जारी है 
अब    हौसलों    की  बारी  है

 ये  इरादों  की  उड़ान  है  मेरे
मेरे   ख्वाहिशों  की   बारी है 

मौत  लाख   खफा  हो  ले तू 
अब   जिंदगी   की   बारी  है 

न  कह वक्त  सब पे  भारी है
ये  हौसला  वक्त  पे  भारी है  
  
पंख  फड़फड़ाने लगे  है आज
अब  ऊँची  उड़ान की  बारी है

न  पकड़   बैसखिओं  को  तू 
कट गये  बाजुओं की बारी है 

रूख तूफ़ान  का मोड़ देंगे हम

अपने  इरादों  से  जंग जरी है 

जिसे  मौत  समझ  डर रहा तू 
सच में वो जिंदगी की सवारी है 

आज जी भर के जिंदगी जी लो
आज मेरी,कल तुम्हारी बारी है               मधु "मुस्कान "

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

मधु सिंह : शब्द


 


कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं
कहीं मुडती कहीं  जुड़ती
घूम  फिर  कहीं लिपटटी
तो  कहीं   लपेटती  हुई
बना देती हैं एक अक्षर
और फिर गढ़ देती है 
हमारे  लिए एक शब्द
और यदि ये न होते 
तो हम कितने लाचार
और गूंगे  होते, सायद 
खूंटियो  पर  टंगे -टंगे
एक दुसरे का मुह देखते 
कहने को आज हम जिंदा है
मगर याद रखिये.इन्ही 
आड़ी तिरछी रेखाओं से बने
शब्दों की बैसाखी पकड़ 
कभी हम इन शब्दों को 
तो कभी ये शब्द हमको 
धकलते चले जा रहे हैं
और हम चलते चले जा रहे है 
कभी ये शब्द हमारा पीछा 
तो कभी हम इनका करते
हँसते और गाते
या फिर रोते बिलखते 
जिंदगी  के सफ़र में 
इन्ही  रहबरों  के संग 
उड़ते  चले जा रहे  हैं 
और तो हाँ  ,धीरे -धीरे 
ये  शब्द और  इनके अर्थ 
खोते और फिसलते जा रहे  हैं 
यही है  जीवन की यात्रा 
पाना  खोना और बिछुड़ना 
कभी हम शब्दों  को ढूंढते  हैं 
और कभी शब्द  हमकों

                 मधु "मुस्कान "


मंगलवार, 16 सितंबर 2014

मधु सिंह : जानें कहाँ कहाँ रूहे रवाँ ले जाएगी





जानें कहाँ - कहाँ  ! रूहे  रवाँ ले जाएगी
देखिये ! पागल हवा किस तरफ ले जाएगी

ख्वाब सारे देख लें  कल सुबह होनें के पहले 
क्या भरोसा !किस बहानें से कज़ा आजाएगी

ज़िन्दगी इक सैलाब है कब कहर ढाने पे उतरे 
कब न जानें !काली घटा सब कुछ बहा ले जाएगी 

 ये अँधेरे ही भले है  इक रास्ता कहीं  ढूंढ लें

 भोर की पहली किरण जानें क्या सजा दे जाएगी

 चप्पे -चप्पे  पर ये दुनिया अक्लमंदों से भरी है
अक्लमंदों की ये दुनिया जाने कहाँ ले जाएगी 

अल्लाह के फ़रमान पर  दोस्त सारे चल दिए
अल्लाह की मर्जी न जाने कब मेहरबां हो जाएगी

 चलो दूर  कहीं दूर अपनी ख्वाहिशों को अंजाम दें

 उम्र की दरिया  न जानें कब  किधर  मुड़ जाएगी 


                                                            मधु "मुस्कान"

   


रविवार, 14 सितंबर 2014

मधु सिंह : साये ने मेरे मुझसे मेरी तस्वीर छीन ली



                      
               
                             (1)

न जाने किस  गुनाह की मुझको सज़ा मिली
मेरे साये नें  मुझसे मेरी  तस्वीर  छीन ली

                           (2)

मेरी तक़दीर ने मुझसे ये वादा किया है
मईयत में मेरे उसका कंधा सरीक होगा 

                         (3)

अपनी ज़हन की खिड़की पर मुझको टांग लो 
एक कील तेरे ज़हन में ठुक तो जायगी

                          (4)

मेरे ही कटे पाँव ने  मुझसे यह कहा
बैसाखी इरादों की अपने साथ लिए चलना

                            (5)

आप की निगाहों नें चुपके से क्या कहा 
कल तो मेरी जाँ मेरी जाँ पे बन आई थी 

                        मधु "मुस्कान"

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

मधु सिंह : जख्म खिल जाने के बाद



                          
             
  
  दिल बगावत पे  उतर  आया  हुश्न  दिख  जानें  के बाद
  फ़तवा  जेहाद  का  जारी  हुआ  इश्क  टकराने  के बाद

  यूँ  भटकता रह गया मैं कभी इस हरम कभी उस हरम
  क्या  कहें  क्या - क्या सहा जख्म  खिल जाने  के बाद

   हाय ! ये हुश्न की  कारीगरी औ  इश्क  की बाजीगरी
   जख्म  सारे   सिल  गए   आगोश  में  आने  के  बाद

  ख्वाब को मंजिल मिली  एहसास  को  मकसद मिला
  जिश्म  की  दहलीज़  पर कुछ यूँ फ़िसल जानें के बाद

  कुछ  हुश्न का  जल्वा  रहा  कुछ  इश्क  का रहा मर्तबा
  अश्क   भी   निकले  नहीं   घर   खाक   जाने   के  बाद 

  कुछ  यूँ  जला  मैं  मोम   सा  राख़  बन   कुछ  यूँ उड़ा
  आशिकी   की   आग़  में   हर  ख्वाब  जल  जाने  बाद  
  
                                                                       मधु "मुस्कान"


शनिवार, 6 सितंबर 2014

मधु सिंह : जज साहब के बिछौनें देखे





हमने   बहुत   ज़माने   देखे 
थानों   में    मयखाने   देखे

गुण्डे ,चोर, उचक्कों ,रहजन 
सबके  पहुंच   ठिकानें  देखे

कहते थे ख़ुद को जो मुन्सिफ   
उनके  करम   घिनौनें   देखे 

जिश्म  जवानी  नंगेपन संग
जज साहब के  बिछौनें  देखे

क़त्ल  रात  में  सुबह छिनैती
मंत्री के   घर  तहखानें  देखे

खोल -खोल जब परतें देखी
कितनें खेल - खिलौनें  देखे

जब - जब  कत्ल  खून  होते 
खंज़र साहब के सरहाने देखे

नहीं पूछना क्या -क्या देखा 
छुरी   घोंपते   अपने    देखे

            मधु  "मुस्कान "





 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मधु सिंह : तमाम उम्र अकेले लड़ी हूँ मुफलिशी से





ज़िन्दगी यूँ  हीं नहीं मिली है मुझे, ख़ुशी-ख़ुशी से
तमाम उम्र मैं अकेले लड़ी हूँ, मुफलिशी से

ये रौनक जो मेरे चेहरे  पे,  चल के आई है
फ़तह  हासिल  हुई है जंग  में , खुदकशी से

तीरगी उजालों का क़त्ल करनें पे आमादा थी 
मेरे इरादों ने जंग जीत ली, ख़ुशी-ख़ुशी से

खोया है ज़िन्दगी ने बहुत कुछ, ज़मानें को पता है 
मगर फ़तह हुई है मेरी , बड़ी दिलकशी से

फुलझड़ी न समझ मुझे मैं इक धमाका हूँ
दोस्ती बहुत पुरानी है  मेरी ,आतिशी से  

                             मधु "मुस्कान"




बुधवार, 3 सितंबर 2014

मधु सिंह : चन्दन कुमकुम रोली अक्षत





लिए   हाथ  मैं   रंग   तूलिका    माँ  का   चित्र   बनाऊँगी
मातु  भारती  के  चरणों  में ,  मैं  अपना  शीश   नवाऊँगी

चन्दन , कुमकुम,  रोली,  अक्षत  ले  पूजा  की  थाली में
आँचल  में  भर  उषः  लालिमा  मैं   पूजा  करनें  जाऊँगी

नहीं  बहेगा  खून  धरा  पर   नहीं  खिचेंगीं  तलवारें  अब
तलवारों की  धारों पर मैं   सत्य   अहिंसा  लिख  आऊँगी

स्वागत अभिनन्दन में माँ के  गीत एक मैं नया  लिखूँगी
जन गण मन  का माधुर्य लिए मैं नंदन कानन में गाऊँगी

पीड़ा न दिखेगी अधरों पर खुशियाँ होंगीं दुःख दर्द न होगा
मैं , भेद भाव विद्रोह घृणा  की दीवारों को गिराने  आऊँगी

दुनियाँ न  दहलनें  दूंगीं मैं, गोलों  बम तोपों के धमाकों से
मज़हब की पगडण्डी को मानवता की राह दिखाने आऊँगी

अब न  जलेगी  बेटी कोई  अश्रु  न  होंगें माँ  की  आँखों में
कैद  हुई प्यारी  मुनियों को  मैं  पिजरों  से उड़ानें  आऊँगी

मंडल और कमंडल की अब  साजिस न दिखेगी धरती पर
कर्म  योग  गीता  पढ़-पढ़  मैं नव  गीत सुनानें आऊँगी

ग्रंथी ,पंडित , मोमिन और  पादरी अब न भिड़ेगें आपस में
धर्म संघ के ठेकेदारों को मैं मानवता का पाठ पढानें आऊँगी

साधु  संत  सन्यासी  के चिमटों से अब  न उठेगी  चिंगारी
आग   जल  रही  नफ़रत  की  जो  मैं  उसे   बुझाने आऊँगी

राम रहीम   कबीरा के संदेशों  को ,लिए हाथ मैं रंग तुलिका
मंदिर  मस्ज़िद  गुरूद्वारे  औ  चर्चों  पर  लिखने  आऊँगी

जो   पूजा   के   फूल   बेच   दे   थाली   को    बदनाम   करे
ऐसे  बहुरुपिओं को   मैं,  मंदिर  दरगाहों से भगानें आऊँगी


                                                                                              मधु "मुस्कान"






सोमवार, 1 सितंबर 2014

मधु सिंह : माचिस की तीली पे सबकी नज़र है



 

तेरा   जिश्म  है  के  ये   खुशबू  का  शज़र  है
चन्दन के दरख्तों पे  तेरी खुशबू का असर है 

मौसम  भी  बहक  जाता  है   देख  कर  तुझे
तेरी  शोख आदाओं  में  बड़ा  मीठा  जहर है

तेरे हुश्न पर तो  बहारें भी  फ़िसल जाती  है
तेरी  आशिकी  से  जलता  ये  सारा  सहर है

देखो  कोई   बहेलिया  छुप  बैठा  है  घात  में
तेरे  हुश्न  के   परिंदे   पर   सबकी  नज़र  हैं

कागज़  के  फूलों  पर  न  लिखना  मोहब्बत  
के  माचिस  की  तीली   पे  सबकी   नज़र है 


                                                     मधु "मुस्कान "































शनिवार, 30 अगस्त 2014

मधु सिंह : तेरा साया तेरे कद से बड़ा लगता है



                             
                             (1)

टूट कर बिख़र जाना, है मुझे मंज़ूर लेकिन
सज़दा गुनाहों को करूँ ,यह मेरी  फ़ितरत नहीं 

                                 (2)

तू अपना वज़ूद खुद अपने साये से पूंछ ले
मुझको को तेरा साया तेरे कद से बड़ा लगता है

                                (3)

जश्न  मनाओ के रौशनी हो गई आपके घर में  
घर जला तो जला  मेरा ,कहीं उजाला तो हुआ 

                               (4)

 अपने जूड़ों में लगे फूलों को हटा लो  तुम अब
हमने  काटों  से जीने  का हुनर सीख लिया

                              (5)


 न  तोड़ना  भूल कर  भी  कभी आईना  तुम 
वरना ख़ुद ही बिखर जाओगे तुम आईनें  के  बीच 

                             (6)

ईमान  मेरा मुझसे  इक  बात  पर  ख़फा  है 
कहता है रोज़ मुझसे  तू  मेरा  साथ छोड़  दे  

                                  मधु "मुस्कान "





बुधवार, 27 अगस्त 2014

मधु सिंह : टूटे हुए आईनों की हकीकत को बताया जाए





क्यों  न   हर  शाख पे  फूल  मोहब्बत  का  खिलाया  जाए
सिलसिला   जिंदगी  का   कुछ   इस  तरहा  चलाया  जाए 

बात  मज़हब की  न  उठे  कहीं ,  इंसानियत   का  दौर चले
दिलों में  उठ  गईं  नफ़रत  की   दीवारों  को   गिराया जाए 

हम   गुनाहों   के   मशीहा  हो   बैठ   गए , क्यूँ   कर  आज
क्यों  न  आज  अपनीं   खताओं  का   हिसाब  लगाया जाए 

मुल्क  के  रहनुमा  ही  आज   रहज़न  की   सकल  हो  बैठे 
क्यों   न   मदरसों   में  पाठ   इंसानियत  का  पढाया जाए 

तोड़ोगे    जो   ये     आईना    तो   खुद    बिखर    जाओगे 
क्यों  न इस हकीकत  को  सारी  दुनियाँ  को बताया जाए 

चलो  आज  हम नीरज  के  गीतों  के  फिर सलाम  कर लें 
 इस दुनियाँ  में  इंसानियत का नया मज़हब चलाया जाए 


                                                                                    मधु "मुस्कान"
















शनिवार, 23 अगस्त 2014

मधु सिंह : चांदनी रात में तुम नहाया करो




दिये   प्यार  के  बुझ  न  जाएँ  कहीं  चरागे  - मोहब्बत  जलाया  करो 
सुर्ख होठों पे फूलों की कलियाँ सजा खुद न आया करो तो बुलाया करो 


नाम   ले -  ले  मेरा  गुनगुनाया  करो
चांदनी   रात   में  तुम    नहाया  करो
चूम  कर अपनें  होठों से  तस्बीर मेरी 
अपनी किताबों में मुझको छुपाया करो


दिये प्यार  के  बुझ  न  जाएँ  कहीं .............



 साम   ढलते      अँधेरा   पसर   जायगा
दिये  पलकों   पे   अपने  जलाया    करो 
देख  दर्पण  में  क्या  ये सजना सवरना 
दिल  के  दर्पण से खुद को सजाया  करो  

दिये   प्यार    के    बुझ  न  जाएँ  कहीं .........


ज़ख्म भर जायगें ख्वाब खिल  जायगें
चांदनी  की तरह  खिलखिलाया  करो 
चूम  लेगी   तुम्हें   प्रात  की  लालिमा
तुम  इशारों  से  मुझको  बुलाया  करो


 दिये   प्यार    के   बुझ    न जाएँ कहीं  ................


 रात   थम   जायगी   चाँद  आंहें भरेगा  
 भर-भर  बाँहों  में  मुझको सताया करो 
 अपने ख्वाबों  को चूनर पहना  कर नई
 अंधेरों  को   रौशनी  तुम  दिखाया करो 


 दिये    प्यार   के    बुझ  न  जाएँ  कहीं  ...............



 ख्वाहिशें  आस्मा  की   ज़मी  चूम  लेंगीं    
अपनी पलकों पे थपकियों से सुलाया करो 
इक   मूरत   मेरी   अपनें   हाथो   से  गढ़ 
अपनें   दाँतों    में   ऊँगली   दबाया  करो  



दिये   प्यार   के   बुझ   न   जाएँ   कहीं  ................


 रूप - यौवन का मेहमान  है  दो  दिनों  का  
 दिल के गुलशन में कलियाँ खिलाया करो
 चांदनी   रात  में  घर  की  छत  पे  उतर 
 मुझको  बाँहों  में   भर   मुस्कराया  करो 
  

दिये   प्यार   के   बुझ   न   जाएँ   कहीं .................


 तुम्हीं कान्धा मेरे रुक्मिणी  भी  तुम्हीं 
 बना   राधा   मुझे   तुम   नचाया   करो 
 तुम्हीं  मेरे  मथुरा  तुम्हीं  मेरे  गोकुल  
 बांसुरी   की   धुनों   पर   रिझाया  करो 


दिये   प्यार   के   बुझ   न   जाएँ   कहीं .................


                                           मधु " मुस्कान "





शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

मधु सिंह : फिर लौट के आना है दुनियाँ में मुझको



                               



                                (1)
   जिश्म  की दौलत की कभी कीमत नहीं होती
   दिल की दौलत से मोहब्बत की हिना बनती है
                                (2)
 रौनके  - ज़न्नत  न  कभी  रास  आई मुझको
फिर लौट के दोबारा आना है दुनियाँ में मुझको
                               (3)
जो अंजाम हो बेहतर वो ख़ुशी है गंवारा मुझको
फ़कत आगाज बेहतर  होने  से  कुछ नहीं होता 
                               (4)
मुझको  मालूम है ज़न्नत की  हकीकत  लेकिन 
मुझको रास आता है दुनियाँ से मोहब्बत करना
                                (5)
 कहाँ तक फ़ासला मिटाओगे दुश्मनी का मेरे दोस्त
 हमने  तो  दुश्मनों  से  दोस्ती का हुनर सीख लिया 


                                             मधु  "मुस्कान "

रविवार, 17 अगस्त 2014

मधु सिंह : तनख्वाह में मिली इक लम्बी जुदाई है








 मेरी  नौकरी  है इश्क की  मोहब्बत  कमाई है
 तनख्वाह  में   मिली   इक  लम्बी  जुदाई  है

खाव्बों  में   सही   उनसे   मुलाकात   हो गई
मेरे हाथो में जरा देख तेरी  नाज़ुक  कलाई है

बिस्तर  की  सलवटों  से  एहसास  हो  रहा है
मोहब्बत  नें   आज  अपनी   बरसी  मनाई है

ये हिज्र भी क्या चीज है के जगाता है रात भर
एक  हिज्र  ही  तो  मेरी  सारी  पूँजी कमाई है 

इक आवाज  उभरती  है  दरिया की ख़मोशी से
इश्क  ने  ही  लाखों  घरों की  बत्ती  जलाई  है


इरशाद   खान  भाई  तुमनें  ये  सच   लिखा है 
"जब  भी  चलाई  इश्क  ने  अपनी  चलाई है "

                                             मधु  "मुस्कान "

रविवार, 10 अगस्त 2014

मधु सिंह : उठो कलम हुंकार भरो तुम ( स्कॉटलैंड से )

             




                     ( दिनकर जी को  समर्पित)
                   



उठो ! कलम  हुंकार  भरो तुम,आज तुझे कुछ लिखना होगा
एक नहीं अगणित तूफानों में,बन  महाकाल  चलना   होगा


खो गये  कहाँ सपने अशोक के
है  नहीं  पता  कुछ   गौतम का
सारनाथ  के  भग्नावशेष  क्यों
भूल   गये    भाषा   गौतम  की
कुशीनगर  व्याकुल है  कितना
खो  गई  कहाँ  लिक्षवी  हमारी
स्तब्ध  हो  गये स्तूप साँची के
क्यों मधुबन  शमशान हो गये
कलम ,आज तुम कुछ तो बोल

उठो कलम हुंकार भरो तुम,आज तुझे कुछ लिखना होगा
एक नहीं अगणित तूफानों में,बन महाकाल  चलना होगा


भाल  झुक गया आज कुतुब का
क्यों न फट गई छाती ज़ईफ़ की
रो रहा ताज क्यों यमुना तट पर
छुप -छुप रोती मुमताज  बेचारी
जलते  नही  दिये  अब  दिल में
खो  गई लालिमा  लालकिले की
जल जल कर बुझ गए दिये क्यों
बुझ गए तक्षशिला के ज्ञान दीप
कलम ,आज तुम कुछ तो बोल


उठो कलम हुंकार भरो तुम,आज तुझे कुछ लिखना होगा
एक नहीं अगणित तूफानों में,बन महाकाल  चलना होगा


बुझ गये दीप क्यों नालन्दा के
भारत  माँ  की  बक्ष बिध गया
साकेत  जल   रहा  धू -धू कर
कबिरा  का  कुछ  पता   नहीं 
चुप कलम हो गई  तुलसी  की
रहीमन  रो    रहा       अकेला  
कहाँ गए जयशंकर , दिनकर
कहाँ  गया   प्रताप  घाटी  का
कलम ,आज तुम कुछ तो बोल



उठो कलम हुंकार भरो तुम,आज तुझे कुछ लिखना होगा
एक नहीं अगणित तूफानों में,बन महाकाल  चलना होगा


नहीं बच  सकी   शान झाँसी की
खड़ा कुँवर गढ़ रो रहा भाग्य पर
दुर्गादास  न पैदा होते अब क्यों
कहाँ खो  गया  राणा  का चेतक 
मेवाड़   तेरा   बलिदान   कहाँ हैं

खो गया कहाँ  भारत अतीत का
शेखर   का   बलिदान   खो गया
भगत  भागता  घूम रहा  है क्यों
कलम ,  आज तुम कुछ तो बोल

 उठो कलम हुंकार भरो तुम,आज तुझे कुछ लिखना होगा
एक नहीं अगणित तूफानों में,बन महाकाल  चलना होगा


बोलो!रावी,सतलज,चेनाब,सिन्धु
धवल -नीर  क्यों   लाल  हो  गया
अरे भागीरथ, तुम  कुछ तो बोलो
फिर  कब  अवतार धरा पर लोगे  
माँ   गंगा   के    महारुदन     पर 
कब  आकर  नव  काव्य लिखोगे
कहाँ   हो  गई  लुप्त    सरस्वती 
कहाँ   खो  गई  शान   सरयू  की 
कलम ,  आज  तुम कुछ तो बोल

उठो कलम हुंकार भरो तुम, आज तुझे कुछ लिखना होगा
एक नहीं अगणित तूफानों में, बन महाकाल  चलना होगा

                                                                           
                                                                               मधु " मुस्कान "






शनिवार, 2 अगस्त 2014

मधु सिंह : फूँक-फूँक चलती न जवानी



                             ( ब्रिटेन की धरती से )

जब गिर- गिर दहाड़ते   शैल-श्रिंग  भूचाल  धरा पर आता है
पड़ गए जिधर दो डग-मग पग  ज्वाल   विवर  फट  जाता है

फूँक-  फूँक  चलती  न  जवानी *  झंझा  तूफानों  से बचकर
जब   साहस  अपनी  ऊँगली   पर  पौरुष  का    भार उठता है

चढ़-  चढ़ जुनून  की छाती  पर जब  स्वाभिमान टकराता है
इतिहास तो क्या भूगोल युगों  का पल भर में बदल जाता है

क्या  हैं  न  पता  यह  तुझको  मैं   मूक  नहीं  युग बाणी हूँ
चलती  जब -जब  हुंकार  लिए  तब  व्योम  धरा   थर्राता है

रे  वर्तमान  के हठी समय ! तेरा यह कैसा इंगित आवाहन
तू  सम्हल   जरा  पौरुष   अजेय  द्वार   खड़ा  मदमाता है

  * दिनकर जी की पंक्ति                                                
                                                          मधु "मुस्कान"

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

मधु सिंह : हूँ -हाँ से काम अपना चलाने लगे है

            ( रीडिंग :थेम्स की घाटी से )
            

इस कदर लोग मुझको सताने लगे हैं 
हकीकत   भी  उनको  फ़साने  लगे हैं

रात-दिन बात करने से जो थकते न थे
अब  वो  हूँ- हाँ से काम  चलाने लगे हैं 

वो जो चेहरे थे जिन पर भरोसा किया 
उनको  अपनों के  चेहरे  बेगानें लगे हैं

मेरे ख्वाबों की दुनियाँ के जो किरदार थे 
वही   किरदार मुझको   रूलाने  लगे हैं

मैनें मोहब्बत भी की  है खरामे -खरामें
ये समझने  में  उनको  ज़माने लगे है

                        मधु "मुस्कान "

          
    





गुरुवार, 10 जुलाई 2014

मधु सिंह : कामना के पुष्प (थेम्स की घाटी,यू .के.से )



जब  गीत  मय   अस्तित्व  दोनों  के  मिलेंगें
सुरभित  कामना के  पुष्प  अधरों  पे खिलेंगें

नील    नभ     पर    चांदनी    इर्ष्या   करेगी
जब  बाहु- भुज में  आबद्ध  हम धू -धू जलेंगे

पहन   कुसुमों   के  बसन   जब   हम  हसेंगे 
नील नभ के  निर्मल  हृदय में हलचल करेंगे

जब  ले  विभा  की  ज्योति  हम  चंचल  बनेगें  
हिम शैल-शिखरों पर तुहिन कण चुम्बन करेंगे

रे दामिनी ! जिस  ठौर  हम आलिगन  करेंगे 
त्रिपथगा के पुण्य जल से देवगण तर्पण करेगे


                                     मधु "मुस्कान "         




शनिवार, 14 जून 2014

मधु सिंह : झूल जाऊँगी मैं (साउथ वेल्स यू .के. से )

 अपनी पलकों पे सपने सजाऊँगी मैं
 चाँद  तारों को  घर पर  बुलाऊँगी मैं

 इस कदर आप  मुझसे न  रूठा करे
 अपनी बाँहों में भर-भर मनाऊँगी मैं

 रूठने  की  अदा  आप  की  देख कर
 मन -  ही -  मन     मुस्कराऊँगी मैं

 चाहतें आप की दिल पे काबिज मेरे
 आप  की  चाहतों  को  सजाऊँगी मैं

आप ने इसकइ दर जो इनायत है की
जकड़ बाँहों में अपने झूल जाऊँगी मैं 

सेज सूनी बिलखती  न  रहेगी कभी
सेज पलकों  पे अपने  बनाऊँगी  मैं

                         मधु "मुस्कान "

शनिवार, 31 मई 2014

मधु सिंह : नियति व्यंग से


    ब्रिटेन की धरती से -3

       (दिनकर जी के चरणों में समर्पित)

 कूक   रही   है  नियति   व्यंग  से 
 जीवन    के    निर्जन   उपवन में
 हाय,  विवश  जीवन   है  कितना
लिखा अमावास मिलन-लगन में

 पावों में ज़ंजीर पड़ी है, करें क्या 

 हाथों   में    कड़ियाँ    लटकी  हैं 
 तड़प -  तड़प    आहें   उठती  है  
छल -छल आसूं  लिखे  नयन में

 नहीं  शेष   अवलम्ब  द्रुमों  का

लतिका   हुई  निराश्रित कितनी 
है  पीट   रही   छाती    हरियाली
आग लगी तन मन -मधुवन में

 लेकर  यौवन का सुरभि - भार

 उड़  चला अनिल  हो वेगमान
 वैभव का सुख-स्वप्न खो गया 
महाशून्य के तिमिर  गगन में

प्राण - पखेरू  तड़प - तड़प  कर  
दग्ध-विकल निस्सीम व्योम में
कैसे-कैसे भाव उमड़ते,मत पूछो
आहत  मन से  व्याकुल तन  में

व्योंम    व्यकल,   स्तब्ध   धरा
दिसि मौन हो गए क्यों यतिवर 
रे मेरे निष्ठुर महान,क्यों चुप हो 
खो  गये   कहाँ   निर्जन  बन में

मैं   न     रहूंगी     मौन   आज 
सुन   लो  पौरुष  के  महाज्वाल
मैं   सुरभित    पुष्प   सजाऊँगी
जीवन के  इस महा  मिलन  में

रे    आगंतुक   तेरे    स्वागत से
ऋषि -  देव   सभी  हर्षित  होंगें
निस्सीम व्योम की अल्हड़ता ले 
मुस्काऊँगी  मैं  नील - गगन में

ग्रंथी,पंडित,मोमिन और   पादरी 
मैं   न   सुनूगी    बात  किसी की
मैं अपने  ही  हाथो  लिख  लूँगी
महामिलन का  भाग्य लगन में

                              मधु "मुस्कान "









 

शनिवार, 24 मई 2014

मधु सिंह : दामिनी कुछ बोल दे (ब्रिटेन की धरती से उमड़ता भाव -2)

  

 दामिनी कुछ बोल दे




न बोली  चुप रही  क्यों  तू  सत्य अपना  बोल दे
कल्पना -खग पर संवर कर वक्ष अपना  खोल दे

जब दृष्टि मेरी पड़ गई तब चाँद शोभित हो गया
निष्फल न होगी कामना  तू चक्षु अपना खोल दे

ज्ञान की गरिमा  लिए वो  कौन  है  पथ पर खड़ा
रससिद्ध कवि  तू सत्यवाणी आज अपनी बोल दे

 धूलिमय नभ हो गया है ,सूर्य  लोहित  हो चला है 
हे हृदय के अवनि -अम्बर बन क्षितिज तू बोल दे 

देखो कड़कती  दामिनी  लेकर घटाएं  छा  रहीं  हैं
पथिक राह  में असमंजस खड़ा है ,तू कुछ बोल दे

खड़ा  है पंथ में जो  गिरि,  हुंकार भरता आ रहा है
तोड़   सारे  बंधनों को , तू भाव   मन  के  खोल दे

ओझल  हो  गया   क्यों   भावना  का  विश्व  तेरा 
स्वप्न की  पीड़ा न बन ,हृदय का सत्य  तू बोल दे

कब सेतु होगा सृजित अम्बर-धरा का मौन क्यों हो
कहाँ बनेगा कुंज माधवी  ? चुप  न रह कुछ बोल दे

गिरि हिमालय रोर करता हो व्यथित हुंकार भरता 
शैल शिखरों पर कड़कती  हे  दामिनी कुछ बोल दे

शंख की ध्वनि गूंजती शौर्य का अस्तित्व बन कर
बाहुभुज  में  आबद्ध कर  तू  आज  पौरुष  तोल दे
  

                                          मधु "मुस्कान "









शनिवार, 17 मई 2014

मधु सिंह : ब्रिटेन की धरती से उमड़ता भाव -1



 वेणु   -  बंध   में  जुगनू  सजाकर
 मैं    बन   स्फुलिंग   उड़  जाऊँगी
 सपनों    का     संसार    बसाकर
 जी  भर ,  मचलूँगी   मुस्काऊँगी


 लिए   हाथ   कलश   अमृत  का
 चंद्रप्रभा  के   सोपान  पे  चढ़कर
 बनी     पुजारिन     बेद   पाठिनी
अविरल,  मंगल  गीत  सुनाऊँगी


मलयानिल   की  सुरभि   सहेजे
इंद्रधनुष   के   सेतु   पे   चलकर
पहन     प्यार     का     कर्णफूल 
मैं   पिया  मिलन  को   आऊँगी


मंदिर   की  घंटा -  ध्वनिओं से 
निकलूंगी   बन  प्रीति   गीत  मैं
निर्जन   पर्ण-  कुटी  के   भीतर
मैं तुलसी की सुरभि  बिछाऊँगी
 

जला - जला  घृत मृत्तिका-दीप 
उत्सव    हर    रोज    मनाऊँगी
केश -  बंध  को खोल - खोल मैं
जी   भर  थिरकूंगी  , इतराऊँगी


खेलूंगी  हिल-मिल हिम घाटी में
चढ़   शैलश्रिंग  पर  मैं    गाऊँगी
महारास    की   सेज     सजाकर 
बन धवल चांदिनी बिछ जाऊँगी


लज्जित न करूँगीं हे!अतिथि देव 
मैं,अभिलाषा  के   पर्व   मनाऊँगी
अधरों  पर  स्वागत  सौगात लिए
मैं  तम  तिमिर   भगानें  आऊँगी 


 अगणित  स्नेहिल  पंखुडियों  से 
 गूंथ    कामना  की  लडिओं   को
 उन्मुक्त  व्योम  की   छाती  पर 
 मैं     रास     रचानें        आऊँगी


                      मधु "मुस्कान "