सोमवार, 16 दिसंबर 2013

मधु सिंह : रूपसि !

       


             रूपसि !


       चाह तुम्हें जिस भ्रमर की रूपसि  !     
       वह  बना  अजन्मा  भटक  रहा है 
       मधुर  मिलन  के  सपन   सजाये 
       बन प्रसव  पीर  वह तड़प  रहा  है 
      
       कभी  ओढ़  सपनों  में  तुमको
       कभी बिछा  के अपने सपन में
       नयन  सेज  पर  पुष्प   सजाये
       भटक  रहा   है  नील  गगन  में ||2||

       जपती  जाओ  लिए सुमिरिनी 
       मन का मनका बिखर न जाए
       यौवन  की  सुरभित  घाटी  से 
       रूठ कहीं मधुमास रूठ न जाए ||3 ||

       दिखी  न  अब तक  वसन्तानिल
       घन- सावन कहीं  सूख  न जाए 
       सजा के  रखना  सेज  गुलाबी 
       कहीं   यामिनी  गिर  न जाए  ||4 ||

       कैसी  यह  कामना  ,बिलासिनी 
       यह  कैसा  वैषम्य  नियति का 
       खिल न सकी कलिका नयनों में
       कैसा यह दुर्भाग्य  नियति का  ||5 ||
        
       भूषण- वसन  कुसुम  कलिका के
       कहाँ  खो  गये , किस  मरुवन में
       क्यों सो गये नयन सेज़ के मोती
       भ्रामरी  हँस न सकी मधुबन में ||6 ||

       अपलक नयनों से  क्या  देख रही
       झांक  रही किस  माधवी  कुंज में
       खो  गई  कहाँ  नव प्रभा रश्मियाँ
       क्यों तिमिर विहंसता प्रभा पुंज में ||7  ||
       
        जलता   रहा   रक्त   आहुति  में  
       पर  तुम  न  बोली  ,यह  मौन क्यों
       अरी पगली ,बता पगली, बोल कुछ
       बन विधाता , रोना  भाग्य पर क्यों ||8 || 

      कड़कती क्यों नहीं तुम दामिनी बन
      उस  अजन्मा   की  लिए  चाह  तुम
      न देखो  तुम घटा  बन  सखी, बरसो 
      बन प्रतीक्षित  भ्रमर की  चाह  तुम ||9 ||
     
     क्यों  न  फट जाती छाती  तेरी 
     क्यूँ  न पी लेती गरल के घूँट  तुम
     निर्भया  बन ,चीर दो छाती गगन की  
     उतारो उस अजन्मा को धरा  पे तुम  ||10 ||
     
      सखि ,उड़ो आज तुम छू लो  अम्बर  
      जी  भार  नाचो  झूम  - झूम  कर  
      सखि , तृप्ति  तुम्हें  मिल जाएगी 
      उसके बहुपास में  चूम -चूम  कर  ||11||
  
                              मधु  "  मुस्कान"
     

       

     
   
     
     
     
     
     

     
     
     
     
     

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

मधु सिंह : हे कपोतिनी ! तुम सुनो आज

 

   
       हे कपोतिनी, तुम सुनो आज  !


       बन कपोत प्रेमी तेरा जब   , डैनें   गुम्बद  पर लहराएगा
       गिर -गिर कर तेरी बाँहों में वह आशिक तेरा कहलाएगा

       जरा गिरा ले पट  घूँघट के ,और सजा  ले सपन नयन में
       इतिहास के स्वर्णिम पन्नो में इक नया नाम जुड़ जाएगा

       नहीं मौन ,इतिहास सजग है,लम्हों को सदियाँ लिखने को
       तुम  नूरजहाँ   बन   जाओगी ,  वह   सलीम   कहलाएगा

       उलट जरा इतिहास के पन्ने ,एक नज़र तुम उसपर डालो
       क्या फिर सलीम  को  जिंदा  दीवारों  में  चुनवाया जाएगा

       चीख पड़े न कब्र अकबर की , रो  न पड़े  मुमताज बेचारी
       ताज महल इस दुनियां में फिर इक नया बनाया जायेगा

       नीरव नभ के वो दीवानें .जब  बाँहों में  गिर तुम  इतराओगे 
       रे कपोतिनी ,पत्थर की जगह   तेरे  दिलको  तरसा जायेगा  

       

                                                                          मधु " मुस्कान "

      
  
     
  
     
     
   
     
     
       

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

मधु सिंह : विशालाक्षा (8)


   
विशालाक्षा



उषा काल की लाली  से पहले
लिए हाथ शिव का प्रसाद तुम
दिशि पश्चिम प्रयाण तुम करना 
भोले  शिव को  कर  प्राणाम तुम

लिए व्यथा तुम  ह्रदय कमल में
हर्षित मन  विन्ध्यन गिरि जाना
माँ काली के  चरण कमल में
नत मस्तक हो शीश नवाना

कर परिक्रमा माँ काली  की 
निर्जनता की छांव तले 
कन्दमूल फल भोजन होगा 
स्नेहिल माँ   के  पाँव तले 

मगर न  होना विचलित पथ से
बीत  न जाए  लग्न हवन की  
सावन   कहीं  बरस  न  जाये 
आग न बुझने पाए हवन की 

अभय प्रयाण सफल हो तेरा 
सकल कामना  फलित हो मन की 
निर्जनता  के  महा तिमिर में 
वन उड़ना  तुम ज्योति  हवन की 

लेकर अनिल किरीट भाल पर
बन झंझानिल  उड़ना होगा
हटा गगन  के मेघ पंथ से 
ले गति अवाध चलना होगा 

तीर्थराज नव  गंतव्य तुम्हारा 
एक नहीं त्रय माओं का संगम 
गंगा यमुना विलुप्त सरस्वती
का दृश्य दिखेगा बड़ा विहंगम 

प्रयाग राज की महिमा अपार 
सकल मनोरथ पूरण होंगें
मातायें स्वागत गान करेंगीं 
द्वार -द्वार पर तोरण होंगें  



              मधु "मुस्कान"















                                               

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

मधु सिंह : नीर पिपासित



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 नव गुलाब की मोहक सुगंध सी

 तू समा गई तन मन जीवन में
 कविते, तृषावंत मैं भटक रहा हूँ
 तड़प-तड़प कर सकल भुवन में ||1||

धन्य धन्य वो कवि हैं जिनकी

कविताओं में झांकी बनकर
तुम झांक रही अपलक नयनों से
नीर पिपासित सरिता बनकर ||2||

सूखी सरिता ,सूखे सागर

रीते पनघट , प्यासे गागर
खेल रही मरुधर आंगन में
बन कर धूल कणों का सागर ||3 ||

जगा तीब्र मरीचि के सपने

पंख हीन खग सा व्याकुल मैं
वार चुका तन मन जीवन धन
बन दीन अकिंचन आकुल मैं||4 ||

नहीं  कोई  दानी  है जग में

कौन अधर रस पीने ने देगा
कौन साथ मिल कर रोयेगा
क्या नखत पूर्णिमा जीने देगा ? ||5||

कर धारण कौपीन वस्त्र मैं

लिए विपंची घूम रहा हूँ
बना ह्रदय पाषाण शिला मैं
कविते, गिरी गह्वर में दूंढ रहा हूँ ||6||

कुटी नहीं बन पाई  जग  में

युक्ति एक क्या कई बनाया
कुपित देव की शाप शिखा ले
सेज चिता  की स्वयं सजाया  ||7||

गुंजन काम देव का देखो 
बना भ्रमर  वह विहंस रहा है 
कमल   सारीखे    होठों  से 
मादक रस बन बरस रहा है  ||8||

अर्ध तृप्त उद्दाम  वासना  
खेल रही  है  नेजों पर 
रस से भरी  जवानी  देखो 
तड़प रही है  सेजों पर  ||9||

सूली ऊपर  सेज  पिया की  

कैसे अभय प्रयाण करूँ 
जल रही  फसल  यौवन  की  
चढ़  कैसे  रसपान  करूँ  ||10||





(विशालाक्षा की अगली कड़ी अति शीघ्र )



                     मधु "मुस्कान" 












बुधवार, 27 नवंबर 2013

मधु सिंह : विशालाक्षा (7) चर्चा जारी है



विशालाक्षा 

 

स्वागत अभिनंदन  भी  होगा
पथ पथिक और सब देव मिलेंगें
मार्ग    नया   होगा  अनजाना
नभचर   नए  अनेक   मिलेंगें

मन  में  हो  गंतव्य  तुम्हारा
मात्र यक्ष  हो लक्ष्य  तुम्हारा
नहीं कहीं  तुम राह भटकना
हो  पावन   गंतव्य   तुम्हारा

छोड़  मोह माया की दुनिया  
अपलक हो  गंतव्य तुम्हारा
श्रवण  मास  आने  के पहले
हो सम्पूरण मंतव्य तुम्हारा

चल  कैलाश  पहुचना  काशी
विश्वनाथ  के  दर्शन  करना
ले पुनः चरण  रज़  शंकर के
माँ   गंगे   का  पूजन  करना

सांध्य  आरती  की  बेला में
जब गर्जन हो घंट -घडे का
साथ साथ तुम भोले शिव के
नृत्य तांडव  अविरल करना

कशी  के  घाटों पर चल- चल
दिव्य ज्योति के दर्शन करना
मधु मिश्रित समिधा ले तुम
पूजन  नमन  हवन   करना

तीन  लोक  में  न्यारी काशी
हैं  बसे  जहाँ  साधू सन्यासी
धूल  वहां  की  लगा के माथे
बन  जाना  उनके उर  वासी

जलाभिषेक शिव का करना
संकट मोचन के दर्शन करना 
कशी  की  पावन  नगरी  में 
प्रेम भाव  सब अर्पित कारना 

                    मधु "मुस्कान" 

क्रमशः.....
















सोमवार, 25 नवंबर 2013

मधु सिंह : चर्चामंच के विद्वान चर्चाकारों

 
  चर्चामंच   के  विद्वान   चर्चाकारों 
  एवम्  ब्लॉग  जगत के  रचना कारों 
  "विशालाक्षा -6"  पर  प्रतुल  जी  के 
  साथ    बहस  जारी   है  आप अपना 
  मत    एवम्   पक्ष  रख  मेरा  मार्ग  
  दर्शन  अवश्य  करें  कृपया एक बार 
  विशालाक्षा 6 की टिप्पणी पर पधारें 
                       
        
     कहाँ बनेगा कुण्ड हवन का 

      कहाँ  बनेगा कुण्ड हवन का 
          कहाँ जलेगी  ज्योति प्यार की 
          कहाँ   लगेंगें  बचन  के फेरे 
          कहाँ लगेगी  गाँठ प्यार की 
          बोलो-बोलो  कुछ तो बोलो 
          बोलो मिलन कहाँ पर होगा 

           कौन   बनेगा  जीवन साथी 
           कहाँ  सजेगी   डोली  तेरी 
           कौन भरे  सिन्दूर माँग में 
          पायल  खनकेगी  कब तेरी
          बोलो-बोलो  कुछ तो बोलो 
          बोलो मिलन कहाँ पर होगा 

          
           आज  तुम्हे  बतलाना होगा 
          कहाँ सज़ेगी सेज मिलन की 
          तरु तरुवर की  घनी छाँव में 
          या   पलकों   के   आँगन  में
          बोलो-बोलो  कुछ तो बोलो 
          बोलो मिलन कहाँ पर होगा 


          वन उपवन के  वातायन में 
          दूर  कहीं  आकाश गगन में 
          नील कमल की पंखुड़ीयों पर
          सुरसरिता   की  लहरों  पर
          बोलो-बोलो  कुछ तो बोलो 
          बोलो मिलन कहाँ पर होगा   

          कहाँ जलेगी  प्यार की समिधा 
          पंडित  कौन  पढ़ेगा  पोथी  
          जीवन की सुरभित घाटी में 
          कौन करेगा  मंगल  गायन 
         बोलो बोलो   कुछ तो बोलो 
         बोलो  मिलन कहा पर होगा 

         लगन  मुहूरत  भी तो होगी 
         होंगें पंडित  और  पुरोहित 
         कौन  करेगा  कन्या  दान  
         कौन भरेगा  गोद तुम्हारी 
         बोलो-बोलो  कुछ तो बोलो 
         बोलो मिलन कहाँ पर होगा 

         प्रणय निवेदन कौन करेगा 
         कौन   करेगा  आ  आलिंगन 
         जूही गुलाब की कलिओं से 
         कौन   करेगा  उठ अभिनन्दन
         बोलो - बोलो कुछ तो बोलो 
         बोलो मिलन कहाँ पर होगा 

         घूँघट  पट  जब  और  खुलेंगें 
         कौन   करेगा   तेरे   दर्शन 
         कमल   सरीखे  होठों   का 
         कौन करेगा  भाऊक चुम्बन 
         बोलो -बोलो  कुछ तो बोलो 
         बोलो मिलन कहाँ पर होगा 
           

                         मधु "मुस्कान"
          
                       
           
       

 







  

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

मधु सिंह : विशालाक्षा (6 )

   


विशालाक्षा


गले लगा हंसिनी को अपने
विशालाक्षा  फफ़क पड़ी 
देख यक्ष के मन-बिम्बों को 
ज्वाला उर की भड़क पड़ी 



बड़े प्यार से लगी वो कहने 
सुनो विरहिणी  सुनो हंसिनी 
चित्रकूट जाना है तुमको 
है  पता राह का तुझे हंसिनी !

बोल पड़ी तत्काल हंसिनीं 
नहीं  नहीं मैं नहीं जानती 
कहाँ किधर किस ठौर बसा है 
मैं देश- दिशा तक नहीं जानती

 नयन -सेज पर उसके  आँसूं 
 अश्रु -रुदन का भास्य बन गए 
 अविरल प्रवाह की धार सरीखे
  जीवन का पर्याय बन गये 

 रोक अश्रु वह बोल पड़ी 
 राह -डगर मैं दिखला  दूंगीं 
 मंज़िल दूर कठिन  हैं लेकिन 
 आकाश मार्ग मैं बतला दूंगीं 

 सुनो ध्यान से बात हंसिनीं 
 बालक रवि के आने से पहले 
 ले ब्रत तुम गंतव्य का अपनें
 चलना पूरब की लाली से पहले

 कर प्रणाम भोले शिव को तुम
 ले माँ पार्वती के चरण धूल को
 चल पड़ना तुम ब्रम्हमुहूर्त में
 कर कोटि नमन शिव के त्रिशूल को

 पथ कंटक से मुक्त न होगा
 पग-पग पर अपार संकट होगा
 गर्ज़न मेघ का भीषण  होगा
 कहीं धवल तड़ित नर्तन होगा

 झंझावातों का ताण्डव होगा
 नभ विचरित यामिनी होगी
 तुहिन कणों  के माथो पर
 चंचल चपल  दामिनी होगी

पर मार्ग तेरा अवरुद्ध न होगा
मलयानिल भी क्रुद्ध न होगा
झंझानिल की  ध्वनिया होंगी
भीषण  गर्ज़न  नर्तन होगा

                 मधु "मुस्कान

क्रमशः ............. 






  




रविवार, 17 नवंबर 2013

मधु सिंह : जीवन मरा नहीं करता है

 



जीवन मरा नहीं करता है
     ( नीरज़ का अनुसरण,नीरज़ को समर्पित )


सपने   तो   सपने  होते  है
नहीं   कभी  अपने  होते  हैं
कुछ सपनों के मर जाने से
कुछ सांसो के रूक जाने से
जीवन  मरा  नहीं करता है
बन अश्रुधार बहा करता है||1||

बनते  रोज  बिगड़ते रिश्ते
हँसते   और  रुलाते  रिश्ते
कुछ रिश्तों के मर जाने से
कुछ दीयों  के बुझ जाने से
जीवन  मरा नही करता है
बन अश्रुधार बहा करता है||2||


पग-पग पर घनघोर अँधेरा
तिमिर धरा का बना बसेरा
कुछ  राहों  के  खो जाने से
मंज़िल डगर भटक जाने से
जीवन  मरा  नहीं करता है
बन अश्रुधार  बहा करता है ||3||

कलिओं के कुम्हला जाने से
कुछ पुष्पों  के गिर  जाने से
कुछ  भौरों  के  उड़ जाने से
मधुबन जला नहीं करता है
जीवन  मरा  नहीं करता है
बन अश्रुधार बहा  करता है ||4||

अश्रु  चक्षु  में  दिख जाने से  
कुछ अश्कों के गिर जाने से
चेहरे - चाल  बदल  जाने से
अपनों से  ही  छल जाने से 
जीवन   मरा  नहीं करता है 
बन अश्रुधार बहा करता है ||5||  

 जीवन   तो   जीवन  होता हैं 

खुशिओं  का  उपवन  होता है 
कुछ खुशिओं के छिन जाने से 
कुछ  लमहों के  छल  जाने से
जीवन   मरा  नही  करता है  
बन  अश्रुधार  बहा करता है ||6||

मन की माला  तन का मोती
कभी  टूटता कभी  बिखरता 
तन  - मोती  मुरझा  जाने  से 
मन -माला  के  गिर जाने से 
जीवन   मरा  नहीं करता है 
बन  अश्रुधार  बहा करता है  ||7|

                 मधु "मुस्कान "





             


              




शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

मधु सिंह : विशालाक्षा (5)


विशालाक्षा


कौन देख अब विह्वल होगा  
मृदुल  कपोलों की लाली
कौन पियेगा विशालाक्षा के
अधरों की मधुमय प्याली 


किससे  वह संदेसा भेजवाए
यही सोच थी उसे सताती  
कौन बनेगा उसका दूत 
यही सोच थी उसे रुलाती 

कभी देखती धरा गगन को
कभी देखती जल चर नभ चर
दूत कोई मिल सका न उसको
है दहक रही बन पावक घर

दूत यक्ष का मेघ बना था
पर विशालाक्षा का भाग्य तो देखो
किससे कहे व्यथा वह अपनी
वनिता का दुर्भाग्य तो देखो

अकस्मात् बिजली क्या कौंधी
मानसरोवर झील दिख गई
थी रुदन कर रही धवल हंसनी
एक विरहणी उसे मिल गई

हंस वियोग में तड़प रही थी
लिए लाख अत्याचारों को
जिसने देखी हो पति हत्या
मत छेड़ो  दिल के अंगारों को 

नम्र निवेदन विशालाक्षा का
कर उसने स्वीकार लिया
थी पति पीड़ा हंसिनी समझती
दूत भार स्वीकार कर लिया

कहती यक्ष से तुम कहना 
कौन करेगा उससे ठनगन
किसकी बाँहों में वह मचलेगी 
कौन  करेगा उसका चुम्बन

है धधक रही ज्वाला उर में 

ले आँखों में मद की लाली  
गालों पर रोती अरूणाई
मर रही आज वह भोलो भाली

तन–कान्ति देखने को अपलक

अब आँखे यक्ष की कहाँ गईं  
पट मध्य तड़पता तन मन यौवन 
प्रियतम की बातें कहाँ गईं 

                      मधु "मुस्कान "




  

बुधवार, 13 नवंबर 2013

मधु सिंह : पोल ढ़ोल के खोल रहा है


     पोल ढ़ोलके खोल रहा है 



 खडवा चन्दन  मधुरी  बाणी ,  देखो  कैसे बोल रहा है 
 दगाबाज की यही निशानी ,भेष बदल कर डोल रहा  है 

 बन छलिया  हैं रास रसाता,अपने को कांधा बतलाता
 बना-बना कर नये बहाने ,  झूंठ  हज़ारों   बोल रहा है 

 है शेषनाग के फन पर बैठा  ,पता नहीं उस  ढोंगी को 
 कहता है ख़ुद को वह  ब्रह्मा,  उची बोली बोल रहा है 

 बनता बड़ा भविष्य का ग्यानी, चेहरा उसका तो देखो
 माथे लगा के रोली अक्षत, वह कंचुक पट खोल रहा है 

 एक नहीं कितने आश्रम हैं तीर घाट से मीर घाट तक 
 तेरा बापू मेरा बापू सबका बापू ,कैसी बोली बोल रहा है 

 हो गई आज खंडित महिमा,मर्यादा  की नाक कट गयी 
 जय हो उस  हिम्मत की  जो पोल ढ़ोल के खोल रहा है 

  हया  शर्म  को  आग लगा . खेल  खिलाड़ी खेल  रहा है 
  बातें करता  ऊँची -ऊँचीं , खाल ओढ़ कर  बोल  रहा है 



                                             मधु "मुस्कान"










सोमवार, 11 नवंबर 2013

मधु सिंह : हवाएँ

  हवाएँ


हवाएँ  सूंघ  लेती  हैं , मोहब्बत  के  फसानों  को
फज़ाएँ  गुनगुनाती  है , मोहब्बत  के  तरानों को

खिला  दे  फूल  उसके  जिश्म  पर पैगम्बरों जैसा
खुदा तू हजारों पर लगा दे मोहब्बत के फसानों को

कहीं छुपती मोहब्बत है छुपा लो लाख तुम उसको
निगाहें   खीँच   लेती  हैं  मोहब्बत  के  दीवानों को

यकीं आ जायगा तुमको  कहीं  इक दिल धड़कता है
कि सारी उम्र सौप दूं तेरी  पलकों के शामियानों को 

चलो अच्छा हुआ ,निभाई  गुगुनती  दोस्ती  तुमने
ख़ुदा  महफूज़  रखे  ता  कयामत  तेरे  फसानों को

छलक  जाएँ   न  आँसूं   कहीं   मेरी   निगाहों  से 
चलो अब आसमां पर बसा  लें अपने ठिकानों  को 

                                             मधु "मुस्कान "











रविवार, 10 नवंबर 2013

विशालाक्षा (4)

विशालाक्षा

राजमहल की दीवारों से
नभ -चुम्बी प्राचीरों से
लिपट-लिपट कर वह रोती है
है रोज खेलती अंगारों से


कभी देखती चित्रकूट को
कभी स्वयं को तकती है
जला काम की ज्वाला उर में
राह यक्ष की तकती है

है मृत्यु वरण कर लेना अच्छा
पर मृत्यु उसे स्वीकार नहीं हैं
प्राण- वायु तो  यक्ष है उसका
यक्ष वियोग स्वीकार नहीं

लिए वक्ष आशा की किरणें
नित संघर्ष मृत्यु से करती
जीवन की अंधीं गलिओं में
पल -पल वह खुद से लड़ती

नीद जल गयी रातों की
तन-मन बसन विहीन हो गये
घूँघट–पट का कुछ भान नहीं
पागलपन परिधान हो गये

बालक–रवि को ले गोदी में
कैसे समय नें  करवट बदली
जीवन कितना अभिशप्त हो गया
पग - पग पर छाई है बदली

नहीं खिल सके पुष्प कमल के
दिनकर के अथक प्रयासों पर
अभिशप्त हो गया जीवन उसका
जल रही आज हुतासन पर

परिओं की पग ध्वनिओं  से
रह -रह कर चिंगारी उठती है
व्योम धरा की छाती  पर
उर लिए यामिनी चलती है

आलिंगन से परित्यक्त स्नेह  को
स्वर्णिम–कर से मुक्त देह  को
पग -पग पर वह तुहिन कणों में
ढूंढ रही है यक्ष स्नेह को

नहीं कहीं अब अलि के नर्तन
नहीं कहीं मारुत वन उपवन
कुसुम  पंखुरी के आंगन में
चिता बन गया जीवन मधुवन

                      मधु "मुस्कान "
क्रमशः 

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

मधु सिंह : गिर -गिर कर उठते देखा है

 
 
  

अग्नि  सरीखे  पगडण्डी पर
विरही चकई की अश्रु धार सी  
अपनी ही आँखों से टप-टप कर
मैंने  तुमको गिरते देखा है
गिर-गिर कर उठते देखा है
उठ-उठ कर गिरते  देखा है  ||1 ||

विरह अग्नि की व्यथा समेटे

ध्वनि विहीन नंगें पावों से
निशाकाल की छाती पर
मैनें तुमको  चलते देखा है 
मैनें तुमको गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||2 ||

एक नहीं कितनी रातों को

मरुथल की तपती छाती पर
भीषण ज्वाल सी तप्त रेत पर
तड़प-तड़प  कर चलते देखा है 
मैंने तुमको गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||3 ||

ले  दावानल की मर्माहत पीड़ा

त्याग निलय की मोह व्यथा को
गिरि गह्वर के द्वार -द्वार पर
व्यथा -कथा  कहते देखा है 
तुमको मैंने गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||4 ||
 
त्ररयम्बकेश्वर की तीसरी आँख से
निकली  महाकाल की ज्वाला में
पल -पल तुमको जलते देखा है
जल-जल कर  मरते देखा है 
मैंने तुमको गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||5 ||

खजुराहों की प्रतिमाओं में

शंकर के  त्रिशूल  के ऊपर
शीर्ष  नुकीले मध्य भाग पर
तुमको मैंने  चलते देखा है 
मैंने तुमको गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||6 ||

 हिम शिखरों के विस्तृत वितान पर

 भीषण जाड़ों की मध्य रात्री में
निर्जन वन उपवन के भीतर
अपने से ही  बतियाते  देखा है 
मैंने तुमको गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||7||
 
ज्वालामुखी के शीर्ष विवर पर
लावा की भीषण ज्वाला में
मैंने तुम्हे पिघलते देखा है 
मैंने  तुमको जलते देखा है
मैंने तुमको गिरते देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||8||

 फिसलन भरी जमीन सरीखे

 हरित कांति के शैवालों पर
मैंने तुम्हें फिसलते देखा है
सम्हाल -सम्हल  कर  चलते देखा है 
मैंने तुमको   गिरते  देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||9 ||

 बन कस्तूरी  मृग सा पागल 

 मादक रस में जलने वाले 
 अपने ही आगे पीछे 
मति भ्रमित  तुम्हे  होते देखा है 
मैनें तुमको  गिरते  देखा है
गिर -गिर कर उठते देखा है ||10 || 

बाबा नागार्जुन के चरणों में 
उन्ही का अनुकूलन                          मधु "मुस्कान" 


 
 


 
 
 
 
 

बुधवार, 6 नवंबर 2013

विशालाक्ष (3 )

 

      विशालाक्षा

वनिताओं  तुम सुनो कहानी
आँखों में भर-भर अश्रु धार
कथा  -व्यथा आरम्भ हो रही
है धधक रही ज्वाला अपर

चलपड़ा यक्ष अब चित्रकूट को
अपना निर्वासित जीवन जीने
बाध्य यक्षिणी आज हो गई
विरह - व्यथा का  विष  पीने

हो विमुख यक्ष अब अलग हो गया
पहुँच गया वह चित्रकूट में
स्मृतिओं चिता जला कर
है तड़प रहा वह चित्रकूट में

चित्रकूट की भृकुटी पर
चलो नृत्य ताण्डव दिखलाऊं
यक्ष यहीं पागल हो बैठा
महारूदन का सत्य बताऊँ

अट्टहास  थी  प्रकृति कर रही
हटा -हटा घूँघट  पट अपने
आग़ लगी थी अलकापुरी  में
थे बचे मात्र जीवन में सपनें

स्तब्ध विशालाक्ष चिता बन गई
यौवन की जलती ज्वाला में
महाकाम  की जव्वाला  देखो
धधक रही हिम कण-कण में

हिम शिखरों पर ज्वाला भड़की
है लगी आग तन मन उपवन में
विशालाक्ष जल रही आज
व्यारापति के आचल में

कल -कलरव निः शब्द हो गये
पषाण शिला बन गयी यक्षिणी
रुक गयी आज गति पृथ्वी की
विष वमन कर रही वायु दक्षिणी

हिम परिओं के पंख जल गये
महा -काम की ज्वाला में
पति रहते वैधव्य मिल गया
जल रही यक्षिणी ज्वाला में

महा अनर्थ का तांडव देखो
मलयानिल के झोंकों में
चंचल चपल यामिनी देखो
पिघल रही है आँखों में

                    मधु "मुस्कान""








रविवार, 3 नवंबर 2013

मधु सिंह : तुम आ जाना

   तुम आ जाना 


 जब शाम ढले  जब दीप जले 
 तुम भी चलना जब तिमिर चले 
 चुपके- चुपके  तुम आ जाना
 तुम भी चलना जब रात चले 

 अमावस   की  सुनी रातों में
 प्रियतम की  खोयी  यादों में
 बन  विश्नुपगा ध्रुवनंदा तुम
 तुम  आजाना जब शाम ढले 

हौले हौले तुम डग पग भरना 
घूँघर  की  झंकार  न  निकले
मादकता का श्रृंगार किये तुम 
आ जाना तुम  जब इन्दु छले

तुम बन  माया की  मृगतृष्णा
व्यथा विरह की प्रतिमा गढ़ कर 
जला  काम  की  ज्वाला उर में
तुम भी चलना जब सत्य चले

पहन  प्यार की  धानी चुनर
लज्जा से आवृत्त वसन में
लिए  दीप दोनों  कर अपनें
मादकता ले  भोले नयन में

ज्योतिप्रभा ले व्यारापति की
शीतल मंद वयार सुगन्धित
लिए साथ  अपने  सांसों में
कर देना जीवन अभिमंत्रित

चक्षु लिए तुम अमिय धार की
नव नूतन परिधान पहन  कर
लिए  काम की  मृदुल  सुरभि 
आ जाना तुम वारिद बन कर

               मधु "मुस्कान "












  



  

  




  









शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

मधु सिंह : अंजुलियों में जुगनू भर कर

 
      अंजुलियों में जुगनू भर कर



          नील  गगन  से तारे  चुन कर
          अंजुलियों  में  जुगनू  भर कर    
          सुरसरिता  का  कर आवाहन
          दिए  प्यार  के  आज  जलाएं
          चलो  धरा से  तिमिर  भगाएँ
          सोम - सुधा  का  रस बरसाएँ
          चलो आज  हम  दीप जलाएं
          चलो आज हम ................ ||1 ||

          भ्रमित न  हों दिग्भ्रमित न हों
          देख तिमिर हम व्यथित न हों
          एक  नहीं   कितने   दुशासन 
          मर्यादा  की   हम लाज बचाएं
          चलो   धरा  से  तिमिर  भगाएँ
          सोम -सुधा  का  रस  बरसाएँ
          चलो  आज  हम  दीप जलाएं 
          चलो आज हम .................||2 ||

          पग- पग  पर  घनघोर अँधेरा
          काम   क्रोध  का  हुआ  बसेरा
          अत्याचारों की  इस धरणी पर
          लिख विहान की नव परिभाषा
          चलो धरा  से  तिमिर  भगाएँ
          सोम -सुधा  का  रस  बरसाएँ 
          चलो  आज  हम  दीप  जलाए
          चलो  आज  हम  दीप जलाएं||3 ||

          मार्ग सत्य का हुआ तिरोहित
          बना  आज  अन्याय  पुरोहित
          कलम न्याय  की कुंद  हो गई
          चलो  न्याय  की    धार  चढ़ाऍ
          न्याय   देवता   को   समझाएं
          सोम -सुधा  का  रस  बरसाएँ 
          चलो  आज  हम   दीप जलाएं 
          चलो  आज हम  दीप जलाएं||4 || 

          ढूँढा बहुत परन्तु  मिला  क्या
          नहीं  ठिकाना सत्य न्याय का
          मंदिर मस्जिद संग्राम हो  गए
          चलो धर्म पर  लिख मानवता
          हम  मानवता  का  पाठ पढ़ाएं
          सोम - सुधा  का  रस  बरसाएँ 
          चलो आज  हम   दीप जलाएं  
          चलो आज हम ..................||5 ||

         मोमिन पंडित हथियार हो गये
         घर  ही  ख़ुद  में  दीवार  हो  गए
         मान  प्रतिष्ठा की  बदली भाषा
         कर मर्यादा  के दीप प्रज्वलित   
         गीता  कुरान  का  मर्म  बताएं
         सोम - सुधा   का  रस   बरसाएँ 
         चलो  आज  हम   दीप   जलाएं 
         चलो आज हम दीप ..............||6 ||

         छल कपट हो रहे महिमामंडित
         ये  गीता कुरान  के  सार हो गए
         लगा   मुखौटा   अपने   मुह  पर
         हम खुद  में ही  भगवान् हो गए
         क्यों न आज  ख़ुद  को  समझाएं
         सोम - सुधा   का  रस   बरसाएँ
         चलो  आज   हम  दीप   जलाएं 
         चलो आज हम ...................||7 ||

                           मधु "मुस्कान "
         
       
       
       

       
      

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : विशालाक्षा (2)

   
    विशालाक्षा 


       धनपति कुबेर के क्रोध अग्नि की
       भेंट चढ़ गई निर्दोष यक्षिणी
       मिला यक्ष को देश निकाला
       थी राजमहल में जली यक्षिणी (7)

        पति वियोग की पीड़ा कितनी
        बनिता की धडकन से पूछो
        जिसने पल -पल में युग देखा हो
        वह व्यथा  विशालाक्षा से पूछो (8)

         कमल पुष्प था मात्र बहाना
         था कुबेर को अहं दिखाना
         चढ़ गई अहं की अग्नि यक्षिणी
         धनपति को था यह बतलाना (9)
       
        अरि कुबेर के अत्याचारों से
        धू -धू कर ज्वाला भडकी थी
        इस ज्वाला में जली यक्षिणी
        महाव्यथा बन तड्पी थी (10)

        है सच यह  वह गरज  उठी थी
        विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी थी  
        राजद्रोह के दुस्परिणामों से
        हो विमुख यक्षिणी गरज उठी थी(11)

       आज उसी के करूँण रुदन  में¸
       विरह - व्यथा का भाष्य लिखूगी
       पर नाम न होगा  मेघदूत
       महावियोग का काव्य लिखूंगी (12)

        आज उसी की अमर-कहानी
        व्यक्त करूँगी झंकारों  मे
        आज उसी की कथा लिखूंगी
        विशालाक्ष  की हुंकारों में (13) 
     
                             मधु "मुस्कान"
क्रमशः

          

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : अश्रु मेरे दृग तेरे थे

   अश्रु मेरे दृग तेरे थे  


    स्मृतिओं  की घाटी में

    लिए  बचन  के फेरे थे
    महातिमिर की  बेला में
    तुमने ही  दिए  सवेरे   थे  ||1||
   
    महाकाल जब गरज उठा था
    जब  क्रंदन  के अश्रु  बहे थे
    जब-जब जली भूख की ज्वाला
    तुमने  ही दिए बसेरे थे  ||2||
   
    है रची बची स्मृतिओं में
    जब जिवन विस्फोट बना था
    उस महाशीत की बेला में
    दुःख  मेरे सब तेरे थे  ||3 ||

    जब -जब जली व्यथा की ज्वाला 
    जब मेघ फटा मेरी छाती पर 
    क्या याद नही है मुझको सब 
    अश्रु मेरे द्रिग तेरे थे 

   सौरभ सुरभित केशों पर
  अंगुलिओं के फेरे थे
  मदिरारूण आँखों  में तूने
  मेरे ही चित्र उकेरे थे ||5 ||

  सुरभित कुंतल पर मृदुल भाव 
  संख  सरीखे सुघड़ गले में
  नीलकंठ की माला डाले 
  तुमने ही दिए सबेरे थे ||6||

  जब बक्ष भेद शल-शूल चुभे थे 
  अश्रु मेरे जब लहू बने थे 
  तब -तब मेरे छाती पर 
  तेरे बांहों के घेरे थे ||7 ||
   
                        मधु "मुस्कान"

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : विशालाक्षा (1)

             विशालाक्षा 
                     (यक्षिणी)

     (कालिदास के मेघदूत में यक्ष की पीड़ा थी  
     यहाँ  यक्षिणी की पीड़ा हैं  )    

        हिमगिरी के वक्ष वितानों पर
        जब जली विरह की ज्वाला थी
        महाकाल का प्रलय मचा था
        महाकाल   की  ज्वाला  थी (1)

        अधिपति था कोई धनपति कुबेर
        धधकी अहंकार की ज्वाला थी
        अलकापुरी के झंझानिल में
        जब  जली काम की ज्वाला थी(2)

        कालिदास नें  मेघदूत में
        लिख कथा यक्ष को अमर कर दिया
        कौन लिखेगा कथा यक्षिणी
        पुरुषवाद पर  काव्य लिख दिया(3)

        मैं नारी हूँ मुझे पता है
        काम की ज्वाला क्या होती है
        हाय, यक्षिणी  कैसे तड्पी थी
        चिता विरह की  क्या होती है(4)

        नहीं कथा यह कवि कल्पित है
        सत्य कथा है सत्य लिखूंगी
        शपथ  ईश्  का ले मैं  कहती
        पग पग पर नारी व्यथा लिखूंगी(5)

        राजमहल की दीवारों  में
        रासमहल के प्राचीरों में
        पग - पग पर  थे शूल बीछे
        विशालाक्षा की  तकदीरों में(6)

       क्रमशः

                             मधु "मुस्कान"
     
   

     
   
     
     

     

     


मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : कामना की त्रिपथगा

        
             
               कामना की त्रिपथगा * 
 

             तुम  प्रणय  की  वीथिका  में ,  कर  पृथक  श्रृंगार आना
             ले  सुगन्धित  पुष्प  पावन , तुम  समर्पि त भाव आना


             संग कामना  की त्रिपथगा  रहे ,उर आराधना  का भाव हो
             कर प्रज्वलित दीप  हिय,  बन  कोकिला की  हूक आना

             इन्दु हिमकर विधु कलानिधि के ,उर ले सकल भाव  तुम 
             तम  तिमिर की  व्यथा  हरने  बन , प्रभा  का  पुंज आना

             स्वर न  हों याचना के बक्ष  में ,बस  समर्पण  कामना हो
             सारंग सरि सरिता तटिन  के  ले  सकल  तुम रूप आना

              बन्धनों   से कर स्वयं को  मुक्त,  ले  हाथ समिधा भाव 
             बन अतिथि  , मन  कर मुदित , लिए हर्षित भाव आना 

                                                                  
                                                                       मधु "मुस्कान "
        * गंगा    
             
            
               
            
          
          
           
           

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : है यही वास्ता

 
       





















      है यही वास्ता

    हम फ़कीरों का दुनियाँ से क्या वास्ता
    चल पड़े जिस तरफ, बन गया रास्ता 

    धुप  अंधेरों  में हमने  दिये हैं जलाए 
    हम सभी के हुए ख़ुद बन गये रास्ता 

    पाँव रख मेरे  सीने  पर दुनियाँ चले 
    हैं यही दिल में अरमां, है यही वास्ता 

    धुप अन्धेरें जमीं पे  हैं जो पसरे  हुए
    हैं मिटाना उन्हें है, है बस यही वास्ता 

    हम फ़कीरों ने बदली न राहें कभी भी 
    है एक  मंजिल  ख़ुदा, है ख़ुदा वास्ता 
                                                       
                                                                  मधु "मुस्कान"

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : बिटिया तुमको बहुत बधाई


             





                बिटिया तुमको बहुत बधाई 
          कल तू   थी  घर  मेरे  आई
                  (18 अक्टूबर )



  

                                    बन  प्रसाद  तू  घर  आई  थी , लिए  पुष्प  समिधा  हाथो में
                                    बसती  है   तू   तन - मन  मेरे ,  नंदन -  कानन - उपवन में

                                   प्रथम  आगमन रुदन भरा था, अब  भी  तू  वैसी  ही लगती  
                                   रुदन  तुम्हारा  देख- देख  कर, पीड़ा  अपार  होती थी उर में

                                    वायु  सुगन्धित हो जाती थी  जब तू  आँचल  में छुपती थी
                                    आज  भी  तू  वैसे  ही  बसती  है  मेरे  मन  के झंझानिल में

                                   तू रोज- रोज  अब  भी  दिखती है ,मेरे  घर, मन, आंगन  में
                                   रची बसी तू  स्मृतिओं में  है  दिखती  रोज  मेरी  हिचकी में

                                    मौसम  तेरी  स्मृतिओं  का , कभी  हसांता   कभी  रुलाता   
                                    जल में, थल में,धरा गगन में , बन खूशबू बसती चन्दन में

                                    सात  संमुन्दर  दूर  जा बसी ,  अपनी  यादें  छोड़  यहाँ पर
                                   लगता   है तू  बगल  से गुजरी , मेरे  दिल ,मन -मधुबन में

                                   होती  हैं  यादें भी ज़ालिम , दिल छू  कर तुम देख  लो मेरा
                                   आँखें मेरी भर आती हैं, जब  आती हो  तुम मेरी तन्हाई में  


                                   तुम्हे  बधाई  ,तुम्हें  बधाई , कल  के  दिन  थी तू घर  आई 
                                    फूल खिलें  होठों  पर  तेरे  महक  उठे  तू मन  घर आंगन में

     

  

                                                       तुम्हे बधाई तुम्हे बधाई
                                                       कल थी तू घर मेरे आई
    
                                                                मधु "मुस्कान "











 


   
            

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : यक्षिणी


 यक्षिणी



हिमगिरि के  उत्तुंग शिखर पर
धवल शिखर  के शीर्ष बिंदु  पर
शंकर की डमरू ध्वनिओं में
तरु तरुवर के क्रंदन  में
मनु के नव रचना विधान में
श्रृष्टि सृजन के नव प्रयास में
सच सच कहती हूँ मैंने देखा है
अलकापुरी की गलिओं में
विशालाक्षी की पीड़ा को
मैंने छूया है अपने हाथो से
देखा है अपनी आँखों से
हर युग की यह प्रथा रही है
नारी जीवन  व्यथा रही है
कालिदास  सच सच बतलाना
क्या यक्षिणी  की पीड़ा को
तुमने छू-छू कर देखा था
यक्ष की पीड़ा तुमने  लिख दी
कौन् लिखेगा व्यथा यक्षिणी
हर नारी में छुपी यक्षिणी
विरह व्यथा की अग्नि चढ़ गई
नया "मेघदूत" लिखने का मन करता
आहत मन से व्यथित ह्रदय ले
सच कहती हूँ मैं लिख दूँगी   
 
                     मधु "मुस्कान "

 

 


 

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

मधु सिंह : हे बदली अब तू बतला दे



हे बदली अब तू बतला  दे



उड़ उड़ कर  चलने वाली  
व्योम धरा रस भरने वाली
कहाँ कहाँ तू   घूम के आई
कभी  नर्मदा के तट से तुम 
कभी ताप्ती से लड़ भिड़ आई
रुला रुला कर ब्रह्मपुत्र को
अश्रु धार की झड़ी  लगा कर
झेलम को तू  दे दे कर धमकी
हिम शिखरों को आर पार कर
तुम नदिओं को रुला के आई
प्यासी नदियाँ सूखे सागर
बिलख बिलख सब  क्रंदन करते  
कल ही तुमने  चेनाब को लूटा
पानी सब गागर  भर लाई
प्यासी तू इतनी  अब क्यों हैं
प्यास बुझाने तू आई थी
प्यास जगा ,  रे तू  ये क्या कर आई
मृत चईटीका ऊढा   सरस्वती
गंगा मईया को पी आई
नहीं रख सकी लाज भी तुमने
शिव की जटा को भो छल आई
भागीरथ को भी  भूल गई तुम
ये तू क्या से क्या कर आई
छली गोमती को भी तुमने
मंदाकिनी को आग लगाई
कभी रुलाती कभी हसाती
कोसी तक को रुला के आई
गंडक प्यासी रोती वरुणा
तप्त धरा है तृप्त नहीं है
यमुना को भी सुला के आई
कहाँ कहाँ तू चोरी चुपके
कहा कहीं को,  हो कहाँ तू आई
सीतल सिन्धु को तप्त दग्ध कर
व्यास को भी तू  जला के आई
नहीं भरोसा तुम पर बदली
सावन बीता भादों बीता
भारत माता को तू छल आई
घोर घटा घनघोर  निराशा
कन्याकुमारी से ले कर तू
कश्मीर तक सब नदिओं को ठग आई
पानी बरसना भूल  गई  तू 
बिजली गिराने अब क्यों आई
व्यथित हो गये अब  दृग लोचन
छल कर गई अभी ही तू
 घूम फीर, फिर  तू  छलने  क्यों आई

                          मधु "मुस्कान "