शनिवार, 7 दिसंबर 2013

मधु सिंह : नीर पिपासित



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 नव गुलाब की मोहक सुगंध सी

 तू समा गई तन मन जीवन में
 कविते, तृषावंत मैं भटक रहा हूँ
 तड़प-तड़प कर सकल भुवन में ||1||

धन्य धन्य वो कवि हैं जिनकी

कविताओं में झांकी बनकर
तुम झांक रही अपलक नयनों से
नीर पिपासित सरिता बनकर ||2||

सूखी सरिता ,सूखे सागर

रीते पनघट , प्यासे गागर
खेल रही मरुधर आंगन में
बन कर धूल कणों का सागर ||3 ||

जगा तीब्र मरीचि के सपने

पंख हीन खग सा व्याकुल मैं
वार चुका तन मन जीवन धन
बन दीन अकिंचन आकुल मैं||4 ||

नहीं  कोई  दानी  है जग में

कौन अधर रस पीने ने देगा
कौन साथ मिल कर रोयेगा
क्या नखत पूर्णिमा जीने देगा ? ||5||

कर धारण कौपीन वस्त्र मैं

लिए विपंची घूम रहा हूँ
बना ह्रदय पाषाण शिला मैं
कविते, गिरी गह्वर में दूंढ रहा हूँ ||6||

कुटी नहीं बन पाई  जग  में

युक्ति एक क्या कई बनाया
कुपित देव की शाप शिखा ले
सेज चिता  की स्वयं सजाया  ||7||

गुंजन काम देव का देखो 
बना भ्रमर  वह विहंस रहा है 
कमल   सारीखे    होठों  से 
मादक रस बन बरस रहा है  ||8||

अर्ध तृप्त उद्दाम  वासना  
खेल रही  है  नेजों पर 
रस से भरी  जवानी  देखो 
तड़प रही है  सेजों पर  ||9||

सूली ऊपर  सेज  पिया की  

कैसे अभय प्रयाण करूँ 
जल रही  फसल  यौवन  की  
चढ़  कैसे  रसपान  करूँ  ||10||





(विशालाक्षा की अगली कड़ी अति शीघ्र )



                     मधु "मुस्कान" 












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