रविवार, 20 सितंबर 2015

मधु सिंह : भंग निशा की नीरवता कर






गोधूली  के  धूलि गगन से       
बोलो !  तुम्हें  बुलाऊँ  कैसे
भंग निशा की नीरवता कर
बोलो !   दीप जलाऊँ   कैसे

नद-  नदिओं के झुरमुट से
आहट  एक  कोई  आती है
हौले-   हौले  पग चापों  को
बीणा  का तार  बनाऊँ  कैसे

अश्रु  बह  रहे निर्झरणी बन
नील  गगन  स्तब्ध मौन है
व्योम चांदनी मलिन पड़ी है
चंदा   को   समझाऊँ   कैसे

हिमशिखरों में लगी आग है
तन उपवन जल रहा आज है
धू -धू  जलती  आशाओं की  
अपनी  व्यथा  सुनाऊँ कैसे 

सूख  रही  लतिका उपवन में 
पुष्प अधखिले रुदन कर रहे
भ्रमर व्यथा की भेंट चढ़ गये 
कलिओं  को  बतलाऊँ   कैसे

  कसक बची  उर बीच एक है 
पग घुघरू बाँध मैं  आऊँ कैसे
आ आ कर तेरे पास प्रिये मैं 
भर  बाँहों  में  इठलाऊँ  कैसे

    सुधार हेतु सुझाव सादर आमंत्रित


               मधु "मुस्कान "