गोधूली के धूलि गगन से
बोलो ! तुम्हें बुलाऊँ कैसे
भंग निशा की नीरवता कर
बोलो ! दीप जलाऊँ कैसे
नद- नदिओं के झुरमुट से
आहट एक कोई आती है
हौले- हौले पग चापों को
बीणा का तार बनाऊँ कैसे
अश्रु बह रहे निर्झरणी बन
नील गगन स्तब्ध मौन है
व्योम चांदनी मलिन पड़ी है
चंदा को समझाऊँ कैसे
हिमशिखरों में लगी आग है
तन उपवन जल रहा आज है
धू -धू जलती आशाओं की
अपनी व्यथा सुनाऊँ कैसे
सूख रही लतिका उपवन में
पुष्प अधखिले रुदन कर रहे
भ्रमर व्यथा की भेंट चढ़ गये
कलिओं को बतलाऊँ कैसे
कसक बची उर बीच एक है
पग घुघरू बाँध मैं आऊँ कैसे
आ आ कर तेरे पास प्रिये मैं
भर बाँहों में इठलाऊँ कैसे
सुधार हेतु सुझाव सादर आमंत्रित
मधु "मुस्कान "
सुधी पाठकों के स्नेह और आशीष की असीम आकांक्षा
के साथ लगभग तीन माह के यूरोपीय भ्रमण पर
इसे मत कहों तुम समंदर का पानी
है इसमें छुपी आँसुओं की कहानी
दीप अंगणित निशा वक्ष पर थे जलाए
विरह के झकोरों ने जिसको बुझाए
शलभ आ न पाया निशा क्रूर थी
मिलन की घड़ी भी बहुत दूर थी
दामिनी थी कड़कती निशा मध्य ऐसे
बक्ष में हो रहा हो विस्फोट जैसे
रुदन ही समंदर रुदन ही कहानी
न पढ़े इसको दुनियाँ दो बूँद पानी
मधु "मुस्कान "
याद फिर किसी की दिला गया कोई
इक नया जख्म खिला गया कोई
जरा मौसम की मेहरबानियाँ देखो
अब के गर्मी में घर जला गया कोई
खीँच कर दिल पे लकीरें गहरी
नींद उम्र भर की चुरा गया कोई
वादा था चाँद का बाम पर आने का
जुगनुओं को बैसाखी थमा गया कोई
इक प्यास ले तमाम उम्र सहरा में रहे
और आग सहरा में लगा गया कोई
इक खता क्या जो लम्हों ने किया
के ता उम्र की सज़ा दे गया कोई
मधु "मुस्कान "
इश्क में टूट कर गर बिखर जाउँगी
ये बताओ जरा मैं किधर जाउँगी
तेरी चाहतों को खुदा मैंने माना
तुझे पास पाकर मैं निखर जाउँगी
आईना तेरी आँखों का सामने देख कर
देखते - देखते मैं सवंर जाउँगी
कहाँ से कहाँ ला दिया आशिकी नें
तू जिधर जायगा मैं उधर जाऊँगी
दूरियाँ इस कदर दरम्याँ जो रहीं
टूट डाली कली सी बिखर जाऊँगी
मधु "मुस्कान "