रविवार, 30 जून 2013

मधु सिंह: कोई फूल खिले न खिले

           कोई फूल  खिले न खिले



        कुछ उसकी अना थी,कुछ उसका  गरूर था 
        यूँ   हीं   ख़त्म   नहीं   हो   गये   सिलसिले

        ज़िन्दगी  बहुत  उदास   -उदास   लगती है 
        गर  ज़िन्दगी  में न  हों थोड़े शिकवे -गिले

        ज़बां  है   की   ख़ामोश   खुलती  नहीं कभी
        हाय ये दिल भी क्या की सम्हाले न सम्हले
      
        आये   तो  यूँ   कि  न    जायगें   अब  कभी
        गये   तो   ऐसे   गये   ले   खामोशियाँ  चले

        मैंने  काट   ली  जुबां  अपनी   जिनके लिए
        फ़िर  वो   अब   कहीं   मिले   की   न  मिले

        यादों   में   अक्श   उनकी  सूरत  है मचलती
        खिल गये जख्म सब कोई फूल खिले न खिले

                                  मधु "मुस्कान"

      

      
         
                                    

सोमवार, 24 जून 2013

मधु सिंह : लौट आई हूँ मैं एक मुसाफ़िर की तरह

 लौट आई हूँ मैं एक मुसाफ़िर  की तरह 






 एक लम्बे सफ़र की तमाम यादों की आड़ी तिरछी रेखाओं से दिल और दिमांग के कमोबेस हर पन्ने पर  अक्श  तस्बीरों को  -- कहीं सफ़े पे  तो कहीं हासिये पे  सजोए  मैं सलाम बज़ाने हाज़िर हूँ,मेरी गुज़ारिश है कि आप सब मेरी  दस्तक को कुछ यूँ लें --  


   लौट  आई हूँ मै एक मुसफ़िर  की तरह 
   मेरी  गलियाँ  मेरा  ठिकाना  पूँछती  हैं
                                        (अज़ीज़ जौनपुरी )

   ज़िन्दगी राह भी है ,रहबर भी है, गर और करीब से ज़िन्दगी से गुफ़्तगू की जाय तो वो -
   रहजन भी नज़र आती है  -  दोस्तों तुम दोस्त हो चाहे जो भी हो---इसीलिए 

मेरे होठों  पे मचलती गज़ले
मेरे दोस्तों तुझको सलाम करती हैं
तमाम खुशियाँ तुझे नशीब हों
मेरी नज़रें बा-अदब सिर्फ़ ये  कलाम पढ़ती हैं
                                          (अज़ीज़ जौनपुरी )
  तो  मैं  अब  इस सलामी के  साथ यह बतलाना चाहूँगी की मेरे सफ़र से जुड़े इलाके  पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा के वे इलाके थे जिनका धर्म, कला, संस्कृति ,मनोरंजन ,विज्ञानं एवम रोमांच से गहरा सम्बन्ध है ,मेरी यात्रा का पहला पड़ाव कालीकट की माँ काली का था जहाँ मैंने आप सब के लिए  दोनों हाथ उठा कर दुआयें मांगीं  मैं  इसके पश्चात  आप सभी की खुशहाली  के लिए दक्षिणेश्वर में माथा टेका और फ़िर  पुरी के श्री जगन्नाथ मन्दिर में नतमस्तक हुई ---




 वैसे तो इस मुल्क के ज़र्रे -ज़र्रे में ख़ुदा दिखता है
ये बात  और है  कि मैं दर पे दस्तक दे आई
                                          (अज़ीज़ जौनपुरी )






 स्थापत्य कला और धार्मिक दृष्टि से अपने वैभव पर मौन कोणार्क का सूर्य मन्दिर बरबस अपने ऊपर से नज़र न हटाने के लिए विवस कर देता है,

















 फ़िर नन्दन कानन जहाँ  शेरों के उन्मुक्त दहाणों  के बीच हमारी  ज़िन्दगी कैद थी  एक- सफारी के भीतर -यह मेरी ज़िन्दगी के  रोमाँच का चरम क्षण था स्वेत सिंह से मुलाकत ,बस  कुछ मत पूँछिये ,दीघा के तटीय क्षेत्रों के पग को प्रक्षालित करती समुद्री लहरों की छाती पर राफ्टिंग का रोमाँच की बात ही कुछ और थी, रोमाँच के क्षणों के उपरान्त कुछ यूँ कह ले कि ---



   जब -जब मेरे यार ने मेरी ज़ुल्फ़ों में फूल बांधे
   लाखों हसीन ख़्वाब मेरे दिल में उतर गए
                                     (अज़ीज़ जौनपुरी )

   और फ़िर चिलका झील की यात्रा और सार्क के दर्शन ने यात्रा को कुछ अलग अन्दाज ही दे गया











विज्ञान नगर कोलकत्ता  की  त्रिघातीय छाया चित्रों में केलिफोर्निया के सिकोया के जंगलों के इतिहास की जिन पर्तों को  उधेड़ा  गज़ब की थीं रोमाँच का वह पल सायद कभी नहीं विस्मृत होगा जब विज्ञान के उन्नयकों में से एक सिकोया ब्रिक्ष के शीर्ष भाग  से कोटड़ के भीतर 120  फ़िट अन्दर तक  प्रवेश कर  विकास की परतों की उधेड़ बुन कर  विज्ञान के इतिहास में चंद हर्फों को जोड़ देता है ,अब बस और फ़िर कभी क्यों कि

                       मन बहुत उदास है उत्तराखण्ड की  बरबादी को  देख कर

                                                मधु "मुस्कान"



 
  
  




                             

गुरुवार, 13 जून 2013

मधु सिंह : तुम न आये

          तुम न आये 



         सो गये सब दिये शाम के वक्त ही
         जिंदगी  जिंदगी  से  उलझती गई
         रात  आती  रही   रात  जाती  रही  
        तुम  न  आये  मगर सहर  हो गई

         चाँद  ढ़लता  गया  चाँदनी खो गई
        दिल धड़कता रहा ख्वहिशें सो गईँ
        पर  जुगनुओं   के  कहीं  गिर गये 
        तुम  न  आये  मगर सहर   हो गई 

         आज की बात थी आज की रात थी 
         कल की क्या नहीं  देखा  है किसने
         वक्त को भी  हजारों  पर  लग गये
         तुम  न  आये  मगर  सहर   हो गई

        धड़कने दिल की यूँ हीं धड़कती रहीं
        चूड़ियों  की  खनक  कहीं  खो  गई
        पायलें  पाँव  की  बेड़ियाँ  बन  गईं 
        तुम  न  आये  मगर सहर   हो गई

        बिंदिया  माथे  की  कहीं  गिर गई
        मेरे  होठों की  सारी  हँसी  खो गई
        सपने   सारे  धरे  के  धरे   रह गये
        तुम  न  आये   मगर सहर  हो गई

        बेबसी मेरी तुमने कभी सोची नहीं
       न   संदेस  घुंघरुओं  के  तुमने  पढ़े
       दिल की धड्कन यूँ ही धड़कती रहीं
       तुम  न  आये  मगर  सहर  हो गई

        अब  कहानी  मेरी   होने  चली  है
       आखिरी   आस   आखिरी   साँस है
       न आये ही  तुम  न  खताएँ  बताईं
       आखिरी  जिंदगी  की  सहर हो गई

                               मधु "मुस्कान "  


      
      

     
    

रविवार, 9 जून 2013

मधु सिंह :मचलती ख्वाहिशों का क्या होगा

  मचलती ख्वाहिशों का क्या होगा 

  फ़लक से तोड़ कर तारे सज़ा दूँ तेरी ज़ुल्फों में 
 बना धडकन बसा लूँ ख्वाहिसों में आज मैं अपने 
या झुलस जाऊ तपन में तेरी सांसों की 
सिमट आगोश में तेरे लिपट जाऊ मैं सीने से 
हर खुशबू से  तेरी  ही खुशबू निकलती है 
सवारूँ तेरी जुल्फों को बिठा आगोश में अपने 
चला जाउं कहीं मैं दूर धरती से, ले हाथ तेरा हाथ में अपने 
 सुना दूँ दिल की धडकन ,रख दिल अपना  ,दिल पर तेरे

बता दे आज तू जानम,  मेरे इन मचलती ख्वाहिशों का क्या होगा
                                                                                    मधु "मुस्कान "

सोमवार, 3 जून 2013

अज़ीज़ जौनपुरी :तू क्या से क्या हो गया (द्वारा मधु सिंह )





    तू क्या से क्या हो गया 



 तू क्या से क्या हो  गया मेरे दोस्त
 कल  हीरा, आज  पत्थर  बन गया दोस्त



  तस्बीरे-वफा सा कल तक तू लगता था
 आज  खफ़ा -खफ़ा   सा  क्यूँ  हो गया दोस्त 


 
बंदगी छोड़ दिया,रिश्ता तोड़ दिया
 अच्छा हुआ कि तू आज ख़ुदा हो गया दोस्त

  अज़ीब दोस्त है खफ़ा हो के हंसता है
  तू हंसता रहे हमेसा,खफ़ा-खफ़ा  ही रहे दोस्त
   
  न हाल पूंछते हो न चाल पूंछते हो
  जब भी मिलते हो मुह फ़ेर लेते हो मेरे  दोस्त

 तू  चाहे  जितना बदल ले खुद को
 हम जब भी  मिलेंगें हाल पूंछ लेंगें मेरे दोस्त 
    
                                        अज़ीज़ जौनपुरी 



   

शनिवार, 1 जून 2013

मधु सिंह : ज़ज्बात

  मधु सिंह : ज़ज्बात 

         ज़िन्दगी  से  हमको  कोई  शिकायत  नहीं रही 
         वफ़ा परस्ती की किसी से कोई चाहत नहीं रही
         मेरा  होना ही तूफ़ान  सा खलता  रहा  जिनको 
         उन दुश्मनों से भी कभी कोई अदावत नहीं रही
                                                  मधु "मुस्कान"
        
        
         

2 comments:

  1. Wah wah ....kya khoob intkhaab hai....
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  2. लाजवाब " ज़ज्बात के दरख्तों के बड़े नाज़ुक तने हैं,और नदिओं के किनारे हमारे घर बने हैं ,
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