मंगलवार, 23 सितंबर 2014

मधु सिंह : क्यों संगीने उगाई जाती हैं ?



   

फूलों   की  महकी  घाटी में 
क्यों  लाशें  बिछाई जाती  हैं
केसर की  क्यारी  में बोलो
क्यों संगीने उगाई जाती हैं 

क्या हुआ आज इस घाटी को
क्यों आग लगी इस  माटी को
क्यों चश्मों से आसूं  झरते हैं
क्यों चूल्हों में सपने जलते हैं

आजादी    की    वर्षगांठ   पर
क्यों भाल तिरंगें का झुकता है
क्यों आँख  बंद  कर दिल्ली
कुम्भकरण बन  कर सोता है 

क्यों डल  झील की छाती पर
ऐ के सैतालिस ढोई जाती हैं
तड़ तड़ गोली की आवाजें सुन 
क्यों   आँखे   रोई   जाती  हैं

गुलमर्ग    से   पहलगाम तक
क्यों गोलों के जमघट लगते हैं 
छम्ब  कारगिल औ राजौरी में
क्यों रोज भोर में घर जलतें हैं

विस्थापन  की पीड़ा से पूछो
क्यों  लोग  भगाए   जाते हैं 
क्यों   संगीनों    के  साये  में
ज़ज्बात   जलाये    जाते हैं 

चेनाब  की चंचल लहरों का
क्यों  रंग खून जैसा दिखता 
क्यों  हज़रतबल  के भीतर 
है संविधान अपना  जलता 

उर लिए आज इस पीड़ा को 
मैं अलख जगाने  निकली हूँ 
सारी  दुनियाँ  को  सच्चाई 
मैं  आज  बताने निकली हूँ 

चंद  सरफिरे  आ   बैठे  हैं 
अब कश्मीर की छाती पर 
आग  लगाने  को  आतुर ये
बैठे हैं मर्यादा की थाती पर 

इनको अब समझाना होगा 
रस्ता  सही  दिखाना होगा 
मानवता  के  बीजमंत्र  को 
इनको  आज पढ़ाना होगा 

जो  इनके  हितैसी  हो  बैठे 
वो  अपना होश  हैं  खो बैठे 
है ये कठमुल्लों की साजिस
जो  पाक  समर्थित  हो बैठे 

 ऐसे जाहिल कठमुल्लों को 
उपदेश  सुनाने  निकली हूँ
धू -धू  कर जलती घाटी को
मैं सन्देश सुनाने निकली हूँ

मैं   पीड़ा   हूँ  संबोधन की 
मैं हुंकार  हूँ  उद्बोधन की 
मैं  इन्हें जताने निकली हूँ 
इनको समझनें  निकली हूँ 

पता नहीं  इन कठमुल्लों को 
है  जोर बाजुओं में  कितना 
इन चंद सिरफिरे मुल्लों को 
रस्ता  दिखलानें निकली हूँ 

मैं मरघट की  खामोसी को
नव गीत सुनाने  निकली हूँ 
द्रास कारगिल और छम्ब को 
मैं हुंकार सुनाने निकली  हूँ

करते जो  अपमान  देश का 
गाने    खून   का   गाते  हैं 
इन   खूनी  गद्दारों  को  मैं
खवरदार  करनें  निकली हूँ

सुनो सुनो  हे कश्मीरी  भाई 
तुम रोज रोज सपनों  में आते
क्यों रूठ गये अपनों से अपनें 
मैं  अपनों को मनानें आई हूँ

चलो आज हम प्यार से बोलें
नब्ज़ हकीकत की हम तोलें
अपनें  दिल की  धड़कन को 
मैं   तुम्हें   सुनाने   आई  हूँ 

खून खराबे में  क्या रखा है 
नहीं  खून की  होली खेलो 
लिया  हाथ  में चंदा मामा  
मैं ईद मनाने आई हूँ ,मैं ईद मनाने आई हूँ .........

   विदर्भ यात्रा के पूर्व आखिरी रचना 

   लगभग  तीन  माह  के प्रवास पर
                        मधु  "मुस्कान "


  
    


    

    
        
     
      
     
     
      

सोमवार, 22 सितंबर 2014

मधु सिंह : चेनाब की लहरों का हम नीर बदल देंगें





तस्वीर   बदल   देंगें   तक़दीर   बदल   देंगें 
चेनाब  की लहरों  का  हम  नीर  बदल  देंगें

दुश्मन  के   इरादों  की  तस्बीर   बदल देंगें
यूँ  तो   हम  कश्मीर  की  जागीर  बदल देंगें

संगीनें जो उग रही है केसर की क्यारिओं से 
लिख   प्यार के नग्मों  को  तहरीर बदल देंगें 

दोस्त  बन  के  निकले है दुश्मनों को बदलनें 
हम  दुश्मनों  के  दिल की   ताबीर बदल देंगें 

इतिहास के  पन्नो से  मिटा खू की स्याही को
हम  चेनाब  की  घाटी  की  तकदीर बदल देंगें

फ़ौलादी    इरादे   हैं  ज़ज्बात  भी  फ़ौलादी हैं
दुश्मन  के  निशानों  के  हम  तीर  बदल देंगें

कश्मीर की वादी  में निकले  हैं सज  धज  कर
उनके  नापाक  इरादों  के हम पीर * बदल देंगें  

*धर्मगुरु
                                      मधु "मुस्कान "






रविवार, 21 सितंबर 2014

मधु सिंह : जंग जिन्दगी से जारी है





 जंग   जिन्दगी   से  जारी है 
अब    हौसलों    की  बारी  है

 ये  इरादों  की  उड़ान  है  मेरे
मेरे   ख्वाहिशों  की   बारी है 

मौत  लाख   खफा  हो  ले तू 
अब   जिंदगी   की   बारी  है 

न  कह वक्त  सब पे  भारी है
ये  हौसला  वक्त  पे  भारी है  
  
पंख  फड़फड़ाने लगे  है आज
अब  ऊँची  उड़ान की  बारी है

न  पकड़   बैसखिओं  को  तू 
कट गये  बाजुओं की बारी है 

रूख तूफ़ान  का मोड़ देंगे हम

अपने  इरादों  से  जंग जरी है 

जिसे  मौत  समझ  डर रहा तू 
सच में वो जिंदगी की सवारी है 

आज जी भर के जिंदगी जी लो
आज मेरी,कल तुम्हारी बारी है               मधु "मुस्कान "

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

मधु सिंह : शब्द


 


कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं
कहीं मुडती कहीं  जुड़ती
घूम  फिर  कहीं लिपटटी
तो  कहीं   लपेटती  हुई
बना देती हैं एक अक्षर
और फिर गढ़ देती है 
हमारे  लिए एक शब्द
और यदि ये न होते 
तो हम कितने लाचार
और गूंगे  होते, सायद 
खूंटियो  पर  टंगे -टंगे
एक दुसरे का मुह देखते 
कहने को आज हम जिंदा है
मगर याद रखिये.इन्ही 
आड़ी तिरछी रेखाओं से बने
शब्दों की बैसाखी पकड़ 
कभी हम इन शब्दों को 
तो कभी ये शब्द हमको 
धकलते चले जा रहे हैं
और हम चलते चले जा रहे है 
कभी ये शब्द हमारा पीछा 
तो कभी हम इनका करते
हँसते और गाते
या फिर रोते बिलखते 
जिंदगी  के सफ़र में 
इन्ही  रहबरों  के संग 
उड़ते  चले जा रहे  हैं 
और तो हाँ  ,धीरे -धीरे 
ये  शब्द और  इनके अर्थ 
खोते और फिसलते जा रहे  हैं 
यही है  जीवन की यात्रा 
पाना  खोना और बिछुड़ना 
कभी हम शब्दों  को ढूंढते  हैं 
और कभी शब्द  हमकों

                 मधु "मुस्कान "


मंगलवार, 16 सितंबर 2014

मधु सिंह : जानें कहाँ कहाँ रूहे रवाँ ले जाएगी





जानें कहाँ - कहाँ  ! रूहे  रवाँ ले जाएगी
देखिये ! पागल हवा किस तरफ ले जाएगी

ख्वाब सारे देख लें  कल सुबह होनें के पहले 
क्या भरोसा !किस बहानें से कज़ा आजाएगी

ज़िन्दगी इक सैलाब है कब कहर ढाने पे उतरे 
कब न जानें !काली घटा सब कुछ बहा ले जाएगी 

 ये अँधेरे ही भले है  इक रास्ता कहीं  ढूंढ लें

 भोर की पहली किरण जानें क्या सजा दे जाएगी

 चप्पे -चप्पे  पर ये दुनिया अक्लमंदों से भरी है
अक्लमंदों की ये दुनिया जाने कहाँ ले जाएगी 

अल्लाह के फ़रमान पर  दोस्त सारे चल दिए
अल्लाह की मर्जी न जाने कब मेहरबां हो जाएगी

 चलो दूर  कहीं दूर अपनी ख्वाहिशों को अंजाम दें

 उम्र की दरिया  न जानें कब  किधर  मुड़ जाएगी 


                                                            मधु "मुस्कान"

   


रविवार, 14 सितंबर 2014

मधु सिंह : साये ने मेरे मुझसे मेरी तस्वीर छीन ली



                      
               
                             (1)

न जाने किस  गुनाह की मुझको सज़ा मिली
मेरे साये नें  मुझसे मेरी  तस्वीर  छीन ली

                           (2)

मेरी तक़दीर ने मुझसे ये वादा किया है
मईयत में मेरे उसका कंधा सरीक होगा 

                         (3)

अपनी ज़हन की खिड़की पर मुझको टांग लो 
एक कील तेरे ज़हन में ठुक तो जायगी

                          (4)

मेरे ही कटे पाँव ने  मुझसे यह कहा
बैसाखी इरादों की अपने साथ लिए चलना

                            (5)

आप की निगाहों नें चुपके से क्या कहा 
कल तो मेरी जाँ मेरी जाँ पे बन आई थी 

                        मधु "मुस्कान"

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

मधु सिंह : जख्म खिल जाने के बाद



                          
             
  
  दिल बगावत पे  उतर  आया  हुश्न  दिख  जानें  के बाद
  फ़तवा  जेहाद  का  जारी  हुआ  इश्क  टकराने  के बाद

  यूँ  भटकता रह गया मैं कभी इस हरम कभी उस हरम
  क्या  कहें  क्या - क्या सहा जख्म  खिल जाने  के बाद

   हाय ! ये हुश्न की  कारीगरी औ  इश्क  की बाजीगरी
   जख्म  सारे   सिल  गए   आगोश  में  आने  के  बाद

  ख्वाब को मंजिल मिली  एहसास  को  मकसद मिला
  जिश्म  की  दहलीज़  पर कुछ यूँ फ़िसल जानें के बाद

  कुछ  हुश्न का  जल्वा  रहा  कुछ  इश्क  का रहा मर्तबा
  अश्क   भी   निकले  नहीं   घर   खाक   जाने   के  बाद 

  कुछ  यूँ  जला  मैं  मोम   सा  राख़  बन   कुछ  यूँ उड़ा
  आशिकी   की   आग़  में   हर  ख्वाब  जल  जाने  बाद  
  
                                                                       मधु "मुस्कान"


शनिवार, 6 सितंबर 2014

मधु सिंह : जज साहब के बिछौनें देखे





हमने   बहुत   ज़माने   देखे 
थानों   में    मयखाने   देखे

गुण्डे ,चोर, उचक्कों ,रहजन 
सबके  पहुंच   ठिकानें  देखे

कहते थे ख़ुद को जो मुन्सिफ   
उनके  करम   घिनौनें   देखे 

जिश्म  जवानी  नंगेपन संग
जज साहब के  बिछौनें  देखे

क़त्ल  रात  में  सुबह छिनैती
मंत्री के   घर  तहखानें  देखे

खोल -खोल जब परतें देखी
कितनें खेल - खिलौनें  देखे

जब - जब  कत्ल  खून  होते 
खंज़र साहब के सरहाने देखे

नहीं पूछना क्या -क्या देखा 
छुरी   घोंपते   अपने    देखे

            मधु  "मुस्कान "





 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

मधु सिंह : तमाम उम्र अकेले लड़ी हूँ मुफलिशी से





ज़िन्दगी यूँ  हीं नहीं मिली है मुझे, ख़ुशी-ख़ुशी से
तमाम उम्र मैं अकेले लड़ी हूँ, मुफलिशी से

ये रौनक जो मेरे चेहरे  पे,  चल के आई है
फ़तह  हासिल  हुई है जंग  में , खुदकशी से

तीरगी उजालों का क़त्ल करनें पे आमादा थी 
मेरे इरादों ने जंग जीत ली, ख़ुशी-ख़ुशी से

खोया है ज़िन्दगी ने बहुत कुछ, ज़मानें को पता है 
मगर फ़तह हुई है मेरी , बड़ी दिलकशी से

फुलझड़ी न समझ मुझे मैं इक धमाका हूँ
दोस्ती बहुत पुरानी है  मेरी ,आतिशी से  

                             मधु "मुस्कान"




बुधवार, 3 सितंबर 2014

मधु सिंह : चन्दन कुमकुम रोली अक्षत





लिए   हाथ  मैं   रंग   तूलिका    माँ  का   चित्र   बनाऊँगी
मातु  भारती  के  चरणों  में ,  मैं  अपना  शीश   नवाऊँगी

चन्दन , कुमकुम,  रोली,  अक्षत  ले  पूजा  की  थाली में
आँचल  में  भर  उषः  लालिमा  मैं   पूजा  करनें  जाऊँगी

नहीं  बहेगा  खून  धरा  पर   नहीं  खिचेंगीं  तलवारें  अब
तलवारों की  धारों पर मैं   सत्य   अहिंसा  लिख  आऊँगी

स्वागत अभिनन्दन में माँ के  गीत एक मैं नया  लिखूँगी
जन गण मन  का माधुर्य लिए मैं नंदन कानन में गाऊँगी

पीड़ा न दिखेगी अधरों पर खुशियाँ होंगीं दुःख दर्द न होगा
मैं , भेद भाव विद्रोह घृणा  की दीवारों को गिराने  आऊँगी

दुनियाँ न  दहलनें  दूंगीं मैं, गोलों  बम तोपों के धमाकों से
मज़हब की पगडण्डी को मानवता की राह दिखाने आऊँगी

अब न  जलेगी  बेटी कोई  अश्रु  न  होंगें माँ  की  आँखों में
कैद  हुई प्यारी  मुनियों को  मैं  पिजरों  से उड़ानें  आऊँगी

मंडल और कमंडल की अब  साजिस न दिखेगी धरती पर
कर्म  योग  गीता  पढ़-पढ़  मैं नव  गीत सुनानें आऊँगी

ग्रंथी ,पंडित , मोमिन और  पादरी अब न भिड़ेगें आपस में
धर्म संघ के ठेकेदारों को मैं मानवता का पाठ पढानें आऊँगी

साधु  संत  सन्यासी  के चिमटों से अब  न उठेगी  चिंगारी
आग   जल  रही  नफ़रत  की  जो  मैं  उसे   बुझाने आऊँगी

राम रहीम   कबीरा के संदेशों  को ,लिए हाथ मैं रंग तुलिका
मंदिर  मस्ज़िद  गुरूद्वारे  औ  चर्चों  पर  लिखने  आऊँगी

जो   पूजा   के   फूल   बेच   दे   थाली   को    बदनाम   करे
ऐसे  बहुरुपिओं को   मैं,  मंदिर  दरगाहों से भगानें आऊँगी


                                                                                              मधु "मुस्कान"






सोमवार, 1 सितंबर 2014

मधु सिंह : माचिस की तीली पे सबकी नज़र है



 

तेरा   जिश्म  है  के  ये   खुशबू  का  शज़र  है
चन्दन के दरख्तों पे  तेरी खुशबू का असर है 

मौसम  भी  बहक  जाता  है   देख  कर  तुझे
तेरी  शोख आदाओं  में  बड़ा  मीठा  जहर है

तेरे हुश्न पर तो  बहारें भी  फ़िसल जाती  है
तेरी  आशिकी  से  जलता  ये  सारा  सहर है

देखो  कोई   बहेलिया  छुप  बैठा  है  घात  में
तेरे  हुश्न  के   परिंदे   पर   सबकी  नज़र  हैं

कागज़  के  फूलों  पर  न  लिखना  मोहब्बत  
के  माचिस  की  तीली   पे  सबकी   नज़र है 


                                                     मधु "मुस्कान "