बगावत शब्दों के फूलों से भी होती है
जिस क्षितिज की भोर से लाखों उम्मीदें थीं जुड़ी
अब वही मिल एक साथ अंगार बरसाने लगीं है
यह तो हमारी जंग थी उन अमीरों के खिलाफ़
जिनकी सोच की कारीगरी अब घर जलाने लगीं हैं
है बह रही दरिया उधर व्हिस्की की सुबहो -शाम
इधर भूख की दुश्वारियाँ रोटी को तरसाने लगीं है
धर्म ग्रंथों में हवाला है नहीं जिस व्यवस्था का
भटकती गूँगी भिखारिन पर भी जुल्म ढाने लगीं हैं
है धरा-आकाश पर भी अक्श इनके जुल्मो -सितम
सिसकती जिंदगी की भोर को भी ए रुलाने लगीं हैं
बता दो इन्हें बगावत शब्द के फूलों से भी होती है
आग मुफलिसी की भी अब महलों को जलाने लगीं हैं
मधु "मुस्कान "
मधु "मुस्कान "