शनिवार, 11 मई 2013

मधु सिंह : किसी की सकल दिख रही थी

       किसी की सकल दिख रही थी 


       कहीं  एक  लड़की   ग़ज़ल लिख रही  थी 
       ग़ज़ल  में  किसी की सकल दिख रही थी 

       थे   अश्कों  के   मोती  पिरोये  गज़ल  में 
       जैसे चरागों की लौ पे ग़ज़ल लिख रही थी 

       एक दुनियाँ थी उसकी  अँधेरों  से  रोशन 
       उसके अश्कों में कोई सकल दिख रही थी 

       खेल  था  ये उसकी माशूम  तकदीर  का 
       एक फूल  सी  बच्ची बेनूर दिख रही रही 

       मांगी  थी दुआ उसने दोनों हाथ उठा कर 
       पावों  में  उसके  एक ज़ंजीर दिख रही थी 

      ये खेल था रश्मों का रिवाज़ों का कहर था 
      अरमान जल रहे थे औ मौत दिख रही थी 

                                          मधु "मुस्कान"
    

       
       
    
     
     

     

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ...बहुत खूब



    आप बहुत अच्छी गज़ल लिख रही है ....गज़ब

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  2. बेशक एक खूबशूरत ग़ज़ल*** थे अश्कों के मोती पिरोये गज़ल में
    जैसे चरागों की लौ पे ग़ज़ल लिख रही थी

    एक दुनियाँ थी उसकी अँधेरों से रोशन
    उसके अश्कों में कोई सकल दिख रही थी

    खेल था ये उसकी माशूम तकदीर का
    एक फूल सी बच्ची बेनूर दिख रही रही

    मांगी थी दुआ उसने दोनों हाथ उठा कर
    पावों में उसके एक ज़ंजीर दिख रही थी

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  3. बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति,आपका आभार.

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  4. ये खेल था रश्मों का रिवाज़ों का कहर था
    अरमान जल रहे थे औ मौत दिख रही थी


    behad bavuk hai ye ..

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