अड़ गया है जिद पे अपनी, ज़ज गवाही के लिए
ज़ख्म, ख़ुद कहानी कह रहें हैं न्याय के दरबार में
ख़ुद को कहने लग गया है, वो देवता है न्याय का
पर ,सब सरीके ज़ुर्म हैं अब न्याय के दरबार में
कह रहा हर शक्स जिसको , न्याय की एक पालिका
सौदा न्याय का है हो रहा , अब न्याय के दरबार मे
काले कपड़े में वो है अकड़ा, दिख रहा जो मंच पर
कल उसी ने मुह काला किया,बैठ,न्याय के दरबार में
सर से लेकर पावं तक मुकम्मल सब सरीके ज़ुर्म हैं
है लिख रहा जो फैसला बैठ, अब न्याय के दरबार में
कहावत "दाल मे काले"की अब हो गई सदिओं पुरानी
है खिचड़ी पक रही, काले दाल की,न्याय के दरबार में
वो हमारी क्या हिफाज़त कर सकेंगें जो सरीके ज़ुर्म हैं
खुला खेल, सारा चल रहा है, अब न्याय के दरबार में
मधु "मुस्कान"
वो हमारी क्या हिफाज़त कर सकेंगें जो सरीके ज़ुर्म हैं
जवाब देंहटाएंखुला खेल, सारा चल रहा है, अब न्याय के दरबार में
sach kaha apne Mam
हमारी वर्तमान न्याय प्रणाली को कठघरे में कड़ी करती - सच्ची और प्रभावशाली प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवो हमारी क्या हिफाज़त कर सकेंगें जो सरीके ज़ुर्म हैं
जवाब देंहटाएंखुला खेल, सारा चल रहा है, अब न्याय के दरबार में,,,,
वाह,वाह,,,, बहुत खूब,प्रभावी प्रस्तुति,,,मधु जी,
recent post: वह सुनयना थी,
वर्तमान न्याय व्यवस्था पर चोट करती गंभीर और प्रभावशाली रचना का निम्न पंक्तिओं से स्वागत है "जख्म खुद सारी कहानी कह रहें हैं ज़ुल्म की ,क्या करें फिर भी अदालत को गवाही चाहिए ,वो हमारी क्या हिफाजत कर सकेंगें ,उनको खुद अपनी हिफाजत में सिपाही चाहिए .....(अशोक मिजाज़ )
जवाब देंहटाएं08/01/2013 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं .... !!
जवाब देंहटाएंआपके सुझावों का स्वागत है .... !!
धन्यवाद .... !!
बहुत खूब मधु जी ,व्यस्था पर हथौड़े का प्रहार अड़ गया है जिद पे अपनी, ज़ज गवाही के लिए
जवाब देंहटाएंज़ख्म, ख़ुद कहानी कह रहें हैं न्याय के दरबार में
ख़ुद को कहने लग गया है, वो देवता है न्याय का
पर ,सब सरीके ज़ुर्म हैं अब न्याय के दरबार में..... ... सर से लेकर पावं तक मुकम्मल सब सरीके ज़ुर्म हैं
है लिख रहा जो फैसला बैठ, अब न्याय के दरबार में
कहावत "दाल मे काले"की अब हो गई सदिओं पुरानी
है खिचड़ी पक रही, काले दाल की,न्याय के दरबार में
वो हमारी क्या हिफाज़त कर सकेंगें जो सरीके ज़ुर्म हैं
खुला खेल, सारा चल रहा है, अब न्याय के दरबार में
बहुत खूब..................
जवाब देंहटाएंअनु
वाह लाजवाब ग़ज़ल खूबसूरत अंदाज वर्तमान परिस्थिति का शानदार वर्णन. बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (06-01-2013) के चर्चा मंच-1116 (जनवरी की ठण्ड) पर भी होगी!
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कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि चर्चा में स्थान पाने वाले ब्लॉगर्स को मैं सूचना क्यों भेजता हूँ कि उनकी प्रविष्टि की चर्चा चर्चा मंच पर है। लेकिन तभी अन्तर्मन से आवाज आती है कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह सही कर रहा हूँ। क्योंकि इसका एक कारण तो यह है कि इससे लिंक सत्यापित हो जाते हैं और दूसरा कारण यह है कि किसी पत्रिका या साइट पर यदि किसी का लिंक लिया जाता है उसको सूचित करना व्यवस्थापक का कर्तव्य होता है।
सादर...!
नववर्ष की मंगलकामनाओं के साथ-
सूचनार्थ!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंनववर्ष की मंगल कामनाएं आपको भी सानंद रहें .
जवाब देंहटाएंअड़ गया है जिद पे अपनी, ज़ज गवाही के लिए।।।।।।।।ज़िद
ज़ख्म, ख़ुद कहानी कह रहें हैं न्याय के दरबार में
ख़ुद को कहने लग गया है, वो देवता है न्याय का
पर ,सब सरीके ज़ुर्म हैं अब न्याय के दरबार में।।।।।।।।शरीके जुर्म ......
कह रहा हर शक्स जिसको , न्याय की एक पालिका।।।।।।।।शख्श ........
सौदा न्याय का है हो रहा , अब न्याय के दरबार मे
काले कपड़े में वो है अकड़ा, दिख रहा जो मंच पर
कल उसी ने मुह काला किया,बैठ,न्याय के दरबार में।।।।।।मुंह काला किया
सर से लेकर पावं तक मुकम्मल सब सरीके ज़ुर्म हैं ....शरीके जुर्म है ....
है लिख रहा जो फैसला बैठ, अब न्याय के दरबार में
कहावत "दाल मे काले"की अब हो गई सदिओं पुरानी ...सदियों ......
है खिचड़ी पक रही, काले दाल की,न्याय के दरबार में
वो हमारी क्या हिफाज़त कर सकेंगें जो सरीके ज़ुर्म हैं।।।।शरीके जुर्म हैं
खुला खेल, सारा चल रहा है, अब न्याय के दरबार में
मधु "मुस्कान"
सुन्दर बिम्बों और अर्थों को समेटे बढ़िया विचार कविता हमारे वक्त की दास्ताँ कहती है .
न जी भरके देखा न कुछ बात की ,
जवाब देंहटाएंबड़ी आरजू थी मुलाक़ात .
कुछ यही अंदाज़ लिए है आपकी रचनाएं .विरह की तपिश ,श्रृंगार में भी विछोह .